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१८२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन तत्त्व दृष्टि न हो सकी तो आत्म उन्नति असंभव । रोग भव का भयंकर है पुनः होता पुनर्भव ॥ रत्न अनुपम. यह चिन्तामणि कामना पूर्ण सब करता । बनाता सबको त्रिभुवन पति यही वसु कर्म सब हरता ॥ परम पद प्राप्त हो तो फिर भेद विज्ञान का क्या काम । दशा अविकल्प होती है तभी मिलता है निज ध्रुवधाम || तुम्हें शिव सौख्य पाना है बनो तुम भेद विज्ञानी । मात्र अन्तर्मुहूरत में बनो कैवल्य पति ज्ञानी ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥२२॥ ॐ ह्रीं भट्टारक ज्ञानभूषण विरचित तत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपप्राप्त भेदविज्ञान प्राप्तिपादकाष्टमाध्याये ज्ञाननयनस्वरूपाय पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्घ्य
छंद सरसी जिसको पुण्यों की रुचि है उसको जड़ की रुचि है । अन्तर्मन में भरी वासना रंच नहीं शुचि है ॥ मात्र राग के कारण ही वह भव दुख पाता है । शुद्ध भावना बिना न कोई शिव सुख पाता है ॥ आत्म धर्म से विरहित भव की ही तो अभिरुचि है | जिसको पुण्यों की रुचि है उसको जड़ की रुचि है | संयम की मर्यादा में आने से डरता है । पुण्य लोभ के चक्कर में आ राग न हरता है | पुण्य पाप से रहित दशा है उत्तम अब शुचि है जिसको पुण्यों की रुचि है उसको जड़ की रुचि है || श्री जिनधर्म शरण पायी है अब निर्मल हो लो । रागादिक सारे विभाव हर तुम उज्ज्वल हो लो || वह ही भव से पार उतरता जिसको ध्रुव रुचि है । जिसको पुण्यों की रुचि है उसको जड़ की रुचि है ||