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________________ १५५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध निराकुल सदा अचल चिद्रूप शुद्ध का धारी हूँ । आत्म हितेच्छु भावना वाला मैं तो प्रभु अविकारी हूं॥ ८. ॐ ह्रीं नयपक्षरहितचिद्रूपाय नमः ।. स्वायत्तस्वरूपोऽहम् | ताटंक जो व्यवहारालंबन लेकर निश्चय में मन लाते हैं । वेचिद्रूप शुद्ध पाते हैं भव दुख क्षय कर पाते हैं | जो व्यवहार लीन ही रहते निश्चय को न कभी नहीं पाते। उन्हें लाभ होता न कभी भी वे न शुद्ध होने पाते ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥८॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (९) संपर्कात् कर्मणोऽशुद्धं मलस्य वसनं यथा । व्यवहारेण चिद्रूपं शुद्ध तन्निश्चयाश्रयात् ||९|| अर्थ- जिस प्रकार निर्मल भी वस्त्र मैल से मलिन अशुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार व्यवहारनय से कर्म के संबंध से शुद्ध भी चिद्रूप अशुद्ध है । परन्तु शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से वह शुद्ध ही है । ९. ॐ ह्रीं अशुद्धकर्मसंपर्करहितचिद्रूपाय नमः । ज्ञानपंकजस्वरूपोऽहम् । जैसे निर्मल वस्त्र मैल से मलिन अशुद्ध हो जाता है । उस प्रकार व्यवहार आदि से यह अशुद्ध हो जाता है ॥ निश्चय नय से परम शुद्ध चिद्रूप शुद्ध दृष्टित होता । पर व्यवहारनयादिक से यह तो अशुद्ध दृष्टित होता ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ||९|| ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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