________________
१३९
श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
जो अपरमार्थ भाव में स्थित जप तप व्रत धारण करता। उसके जप तप व्यर्थ बालव्रत वह न कर्म रज को हरता ॥
(११) चिद्रूपोऽहं स मे सत्मात्तं पश्यामि सुखी ततः । भव क्षतिर्हितं मुक्ति र्निर्यासोऽयं जिनागमे ॥११॥
अर्थ- मैं शुद्धचिद्रूप हूं इसलिये मैं उसको देखता हूं और उसी से मुझे सुख मिलता है जैन शास्त्र का भी यही निचोड़ है। उसमें भी यही बात बतलाई है कि शुद्धचिद्रूप के ध्यान से संसार का नाश और हितकारी मोक्ष प्राप्त होता है ।
११. ॐ ह्रीं स्वसुखसंपतिस्वरूपाय नमः ।
स्वयंभूस्वरूपोऽहम् ।
देख देख चिद्रूप शुद्ध को उससे ही सुख मिलता है । जिन शास्त्रों का यह निचोड़ संसार नाश सुख झिलता है ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥११॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२)
चिद्रूपे केवले शुद्धे नित्यानंदमये यदा ।
स्वे तिष्ठति तदा स्वस्थः परमार्थतः ||१२||
अर्थ- आत्मा स्वस्थ स्वरूप उसी समय कहा जाता है, जबकि वह सदा आनन्दमय केवल अपने शुद्धचिद्रूप में स्थिति करता है। अन्य पदार्थों में स्थिति रहने पर उसे स्व में स्थित स्वस्थ कहना भ्रम है ।
१२. ॐ ह्रीं केवलशुद्धनित्यानन्दमयशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानारामस्वरूपोऽहम् ।
स्वस्थ स्वरूप उस समय होता जब स्व में सुस्थित होता । अन्य पदार्थो में स्थित को तो सदैव भ्रम ही होता ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥१२॥