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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन मदमात्सर्य भावों से मैं दूर रहूँ हे स्वामी । जीतूं कषाय की छलना जीतूं ये आस्रव नामी ॥
(२)
उन्मत्तं भ्रान्तियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूढं च सुप्तंनिश्चितं प्राप्तमूर्छ जलवहनगतं बालकावस्थमेतत् । स्वस्याधीनं कृतं वा ग्रहिलगतिगतं व्याकुलं मोहधूर्तेः
सर्वे शुद्धात्मद्दग्भीररहितमपि जगदभाति भेदज्ञचित्ते ॥२॥ अर्थ- जिस समय स्व और पर का भेद विज्ञान हो जाता है, उस समय शद्धात्म दृष्टि से रहित यह जगत चित्त में ऐसा जान पड़ने लगता है, मानो यह उन्मत्त और भ्रांत है। इसके दोनों नेत्र बन्द हो गये हैं। यह दिग्विमूढ हो गया है। गाढ़ निद्रा में सो रहा है। मन रहित असैनी, मूर्छा में बेहोश और जल के प्रवाह में बहा जला जा रहा है। बालक के समान अज्ञानी हैं। मोहरूपी धूर ने अपना सेवक बना लिया है। बावला और व्याकुल बना दिया है। २. ॐ ह्रीं उन्मत्तभ्रांतिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।।
व्याकुलतारहितोऽहम् । स्वपर भेद विज्ञान जागते ही होते विशुद्ध परिणाम । यह जग तो उन्मत्त भ्रान्त है यह दिग्मूढ दुखों का धाम॥ मन विहीन असंज्ञी मूर्छित जल प्रवाह में बहता है । बालक के सम अज्ञानी है पागल जैसा रहता है । मोह रूप धूर्तों ने इसको विकल किया है बहु व्याकुल । मैं चिद्रूप शुद्ध चेतन हूँ रंच नहीं हूं मैं आकुल || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम ।
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥२॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(३) स्त्रीणां भर्ता बलानां हरय इव धरा भूपतीनां स्ववत्सो धेनूनां चक्रवाक्या दिनपतिरतुलश्चातकानां घनाणः ।
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