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१२३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान निज निजानंद रूपी निज घर को तज कर कहाँ भागता है | पर में जगता है अरे मूढ निज में ना कभी जागता है || बहु बार अनेक शास्त्रों को मत्त सदैव पढ़ा है । चिद्रूप शुद्ध समझाने वाला ना शास्त्र पढ़ा है | चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥१७॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१८) न गुरुः शुद्धचिद्रूपस्वरूपप्रतिपादकः ।
लब्धो मन्ये कदाचित्तं विनाऽसौ लभ्यते कथम् ॥१८॥ अर्थ- शुद्धचिद्रूप का स्वरूप प्रतिपादन करने वाला आज तक मुझे कोई गुरु भी न मिला
और जब गुरु ही कभी न मिला, तब शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति सर्वथा दुःसाध्य है। १८. ॐ ह्रीं गुरुविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरालम्बनस्वरूपोऽहम् । चिद्रूप शुद्ध बतलाने वाले गुरु कभी न पाए । जब गुरु नहीं मिले तो चिद्रूप कौन समझाए || चिद्रूप शुद्ध की प्राप्ति दुःसाध्य सुगुरु के बिन है । चिद्रूप शुद्ध का मिलना अति ही दुर्लभ गुरु बिन है || चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥१८॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) सचेतने शुभे द्रव्ये कृता प्रीतिरचेतने ।
स्वकीयेशुद्धचिद्रूपे न पूर्व मोहिना मया ॥१९॥ अर्थ- अतिशय मोही होकर मैंने, सजीव शुभ द्रव्यों में प्रीति की। अचेतन द्रव्यों को भी प्रीति का करने वाला माना। परन्तु आत्मिक शुद्धचिद्रूप में कभी प्रेम न किया ।