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________________ १०६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन पांचों परमेष्ठी स्वर्गादिक सुख साता करते हैं प्रदान । निज परमेष्ठी शाश्वत शिव सुख निज देते हैं उत्तम महान || (१९). विषयानुभवे दुखं व्याकुलत्वात् सतां भवेत् । निराकुलत्वतः शुद्धचिद्रूपानुभवे सुखम् ॥१९॥ अर्थ- इंद्रियों के विषय भोगने में जीवों का चित्त सदा व्याकुल बना रहता है इसलिये इन्हें क्लेश भोगने पड़ते है और शुद्ध चिद्रूप के ध्यान करने में किसी प्रकार की आकुलता नहीं होती, इसलिए उसकी प्राप्ति से जीवों का परम कल्याण होता है । १९. ॐ ह्रीं दुःखस्वरूपविषयानुभवरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतसुखसागरोऽहम् । इन्द्रियों के विषय भोगों में ये व्याकुल रहता । उनको पाने में भोगने में ये आकुल रहता ॥ शुद्ध चिद्रूप के अनुभव में नहीं आकुलता । इसकी जब प्राप्ति होती होती है निराकुलता ॥१९॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२०) रागद्वेषादिजं दुःखं शुद्धचिद्रूपचिन्तनात् । याति तच्चिंतनं न स्याद् यतस्तद्गमनं विना ॥२०॥ अर्थ- राग द्वेष आदि के कारण से जीवों को अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं परन्तु शुद्धचिद्रूप का स्मरण करते ही वे पल भर में नष्ट हो जाते हैं। ठहर नहीं सकते क्योंकि बिना राग आदि के दूर हुए शुद्धचिद्रूप का ध्यान ही नहीं हो सकता । २०. ॐ ह्रीं रागद्वेषादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । नीरागस्वरूपोऽहम् । राग द्वेषादि से जीवों को बहुत दुख होता । शुद्ध चिद्रूप स्मरण से बड़ा सुख होता ॥ बिना चिद्रूप के निज ध्यान नहीं होता है शुद्ध चिद्रूप तो भव भार नहीं ढोता है ॥२०॥
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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