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________________ १०४ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन पर्यायों से तुम दृष्टि फेर निज द्रव्य दृष्टि उज्जवल पालो। आत्मा की दृढ़ प्रतीति करके निज मुक्ति भवन में ही जालो || आत्मा का स्वभाव तीनों काल को जाने । किन्तु आवृत है कर्म से अतः न ये जाने ॥ किन्तु चिद्रूप शुद्ध सकल ज्ञेय ज्ञाता है । निरावरण है अतः सबका दृष्टा ज्ञाता है ॥१५॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१६) सर्वेषामपि कार्याणां शुद्दचिद्रूपचिंतनम् । सुखसाध्यं निजाधीनत्वादिहामुत्र सौख्यकृत् ॥१६॥ अर्थ- संसार के समस्त कार्यों में शुद्धचिद्रूप का चिंतन मनन ध्यान करना ही सुख साध्य सुख से सिद्ध होने वाला है। क्योंकि यह निजाधीन है। इसकी सिद्धि में अन्य किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती और इससे इस लोक और परलोक दोनों लोकों में निराकुलतामय सुख की प्राप्ति होती है ।। १६. ॐ ह्रीं निजाधीनशुद्धचिद्रूपाय नमः । स्वाधीनज्ञानस्वरूपोऽहम् | शुद्ध चिद्रूप ध्यान निजाधीन निज चिन्तन । पर अपेक्षा से रहित इसका ध्यान है धन धन ॥ इससे इस लोक औ परलोक में सुख होता है । निराकुल सौख्य सहज इससे प्राप्त होता है ॥ शुद्ध चिद्रूप ही सर्वांश सौख्य . का सागर । पूर्ण आनंद की अदुभुत महान है गागर ॥१६॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१७) प्रोद्य:मोहान् यथालक्ष्म्यां कामिन्यां रमते च हृत् । तथा यदि स्वचिद्रूपे किं न मुक्तिः समीपगा ||१७॥ | अर्थ- मोह के उदय से मत्त जीव का मन जिस प्रकार संपत्ति और स्त्रियों में रमण करता
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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