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[जिनागम के अनमोल रत्न करती है। दूसरों को दोष लगाती है। महापुरूषों के भी गुणों को ढांकती है। मित्रता की जड़ खोदती है। किये हुए भी उपकार को भुलाती है। महानरक के गढ्डे में गिराती है। दुखों के भंवर में फंसाती है। इस प्रकार कषाय अनेक अनर्थ करती है - ऐसी भावना से कषाय को शान्त करना चाहिये।।265 ।।
मोहग्गिणादिमहदा घोरमहावेयणाए फुटुंतो। डज्झदि हु धगधगंतो ससुरासुरमाणुओ लोओ।।313।। एदम्मि णवरि मुणिणो णाणजलोवग्गहेण विज्झविदे। डाहुम्मुक्का होंति हु दमेण णिव्वेदणा चेव।।314।।
अति महान मोहरूपी आग के द्वारा सुर-असुर और मनुष्यों सहित यह वर्तमान लोक धक्-धक् करते हुए जल रहा है । घोर महावेदना से उसके अंग टूट-फूट रहे हैं।
इस लोक के जलने पर भी मुनियों को कोई वेदना नहीं है। क्योंकि ज्ञानरूपी जल के प्रवाह से मोहरूपी आग के नष्ट हो जाने से तथा रागद्वेष के शान्त हो जाने से वे दाह से मुक्त हैं।
खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया बिमोचेहूँ। अज्जाणुचरो ण तरदि तह अप्पाणं विमोचेहूं।।338।।
जैसे मनुष्य के कफ में फंसी हुई मक्खी उससे अपने को छुड़ाने में असमर्थ होती है, वैसे ही भार्या का अनुगामी साधु भी उससे अपने को छुड़ाने में असमर्थ होता है।
दुज्जणसंसग्गीए वि भाविदो सुयणमज्झयारम्मि। ण रमदि रमदि य दुज्जणमज्झे बेरग्गमवहाय।।351।।
दुर्जनों की संगति से प्रभावित मनुष्य को सज्जनों का सत्संग रूचिकर नहीं लगता। वह वैराग्य को त्यागकर दुर्जनों में ही रमता है।
पार्श्वस्थ-चारित्र में क्षुद्र यति-मुनि लाख भी हों तो उनसे एक भी