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________________ 68] [जिनागम के अनमोल रत्न (11) रत्नकरण्ड श्रावकाचार देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्ह णम् संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।2।। इस ग्रन्थ में उस धर्म का उपदेश करता हूँ जो प्राणियों को पञ्चपरितर्वन रूप संसार के दुख से निकाल, बाधारहित, उत्तम सुख में धारण करे, जो समीचीन है तथा कर्मबंधन नष्ट करने वाला है। विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।।10।। जो पाँच इन्द्रियों के विषयों की आशा-वांछा से रहित हो, छह काय के जीवों के घात करने वाले आरम्भ से रहित हो, अन्तरंग-बहिरंग समस्त परिग्रह से रहित हो तथा ज्ञान-ध्यान-तप में आसक्त हो, ऐसे तपस्वी गुरू की प्रशंसा करते हैं। यदि पापनिरोधोऽन्यसंपदा किं प्रयोजनम्। अथ पापाश्रवोऽस्त्यन्यसंपदा किं प्रयोजनम्।।27।। 'सम्यग्दृष्टि विचारता है-जो ज्ञानावरणादि अशुभ पाप प्रकृतियों का आश्रव होन मेरे रूक जाता है तो इससे अन्य संपदा से मेरे क्या प्रयोजन है? और जो हमारे पाप का आश्रव होता है और सम्पदा आती है, तो इस सम्पदा से क्या प्रयोजन है?। सम्यग्दर्शन संपन्नमपि मातंगदेहजस्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरौजसम् ।।28।। सम्यग्दर्शन से सम्पन्न चाण्डाल को देवा-गणधर देव हैं वे देव कहते हैं, जैसे भस्म से दबे हुए अंगार के आभ्यंतर में तेज रहता है। श्वापि देवोऽपि देवः श्वाजायते धर्म किल्विषात्। कापि नाम भवेदन्या संपद्धर्माच्छिरीरिणाम्।।29 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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