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जिनागम के अनमोल रत्न 1
( 10 ) तत्त्वानुशासन बन्ध हेतुषु सर्वेषु मोहश्चक्रीति कीर्तितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिवत्वमशिश्रियम् ॥ 12 ॥ बन्ध के सम्पूर्ण हेतुओं में मोह को - चक्रवर्ती की उपमा है तथा मिथ्याज्ञान उसके ही आश्रित रहने वाला मंत्री है, ऐसा कहा है।
ममाऽहंकार - नामानौ सेनान्यौ तौ चू तत्सुतौ । यदायत्तः सुदुर्भेदः मोह - ब्यूहः प्रवर्तते । । 13 ।
मोह के जो दो पुत्रों-अहंकार और ममकार हैं वे दोनों इस मोह के सेनानायक हैं, जिसके व्यूहचक्र के आधीन मोहचक्री राजा उनके सेना के बीच अति-अति दुर्भेद-कोई उसे जीत न शके ऐसा बसता है ।
अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सद्वृष्टिर्देशसंयतः । धर्म्यध्यानस्य चत्वारस्तत्त्वार्थेस्वामिनः स्मृताः । 146 ।।
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अप्रमत्त तथा प्रमत्त साधु और देशसंयमत तथा (चौथेगुणस्थानवर्ती) सम्यग्दृष्टि जीव को तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान का स्वामी अधिकारी रूप स्मरण किया गया है।
स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत् स्वस्मै स्वतोयतः । षट्कारकमयस्तस्मात् ध्यानमात्मैव निश्चयात्। 74 ॥
वास्तव में तो आत्मा, अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा द्वारा, अपने आत्मा के लिये स्व आत्म हेतु से ध्याता है । इसलिये कर्त्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट्कारकरूप परिणमता आत्मा स्वयं ही निश्चय से ध्यानस्वरूप है।
स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात् स्वाध्यायमाऽऽमनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-संपत्या परमात्मा प्रकाशते । 81 ।।
साधक, स्वाध्याय से ध्यान को अभ्यास में लाये और ध्यान से स्वाध्याय