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जिनागम के अनमोल रत्न] |
निज आत्मा में लीन बुद्धि वाले तथा भव से और भोग से पराङ्मुख हुए हे यति! तू भव हेतु का विनाश करने वाले ऐसे इस (ध्रुव) पद को भज; अध्रुव वस्तु की चिन्ता से तुझे क्या प्रयोजन है ? । कलश 65 ।।
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीवतारिसा होति। ...जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण।। ... . हैं सिद्ध जैसे जीव, त्यों भवलीन संसारी वही।
गुणआठसेजोहैंअलंकृत जन्म-मरण-जरा नहीं।।47॥
जैसे सिद्धात्मा हैं वैसे भवलीन (संसारी) जीव हैं, जिससे (वे संसारी जीव सिद्धात्माओं की भांति) जन्म-जरा-मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं।
प्रागेव शुद्धता ऐषां सुधियां कुधियामपि।
नयेन केनचित् तेषां भिदां कामपि बेदम्यहम्।।1।। जिन सुबुद्धिओं को तथा कुबुद्धिओं को पहले से ही शुद्धता है, उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से जानूं? (वास्तव में उनमें कुछ भी भेद नहीं है।)।
असरीरा अबिणासा अणिदिया णिम्मला बिसुद्धप्या। जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया।।48 ।। बिनदेह अबिनाशी, अतीन्द्रिय, शुद्धनिर्मल सिद्ध ज्यों।
लोकान में जैसे विराजे, जीव है भवलीन त्यों।
जिस प्रकार लोकाग्र में सिद्ध-भगवन्त अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा हैं, उसी प्रकार संसार में (सर्व) जीव जानना।।48 ।। - शुद्ध-अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है, सम्यग्दृष्टि को तो सदा (ऐसी मान्यता) होती है कि कारणतत्व और कार्यतत्व दोनों शुद्ध हैं। इस प्रकार परमागम के अतुल अर्थ को सारासार के विचार वाली सुन्दर बुद्धि द्वारा जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं। क.72।।