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[जिनागम के अनमोल रत्न विशुद्धि सेवनासक्ता बसंति गिरिगह्व रे ।
विमुच्यानुपमं राज्यं स्वसुखानि धनानि चं॥
जो मनुष्य विशुद्धता के भक्त हैं, अपनी आत्मा को विशुद्ध बनाना चाहते हैं, वे उसकी सिद्धि के लिये पर्वत की गुफाओं में निवास करते हैं, तथा अनुपम राज्य इन्द्रिय सुख और सम्पत्ति का सर्वथा त्याग कर देते हैं-राज्य आदि की ओर जरा भी चित्त को भटकने नहीं देते।13-17।।
जो प्रतिदिन 'शुद्धचिद्रूप' का स्मरण ध्यान करता है उसे दूसरे मनुष्यों से अपनी स्तुति सुनकर हर्ष नहीं होता और निन्दा सुनकर किसी प्रकार का विषाद नहीं होता-निन्दा-स्तुति दोनों दशा में वह मध्यस्थ रहता है। 14-16।।
हंस! स्मरसि दव्याणि पराणि प्रत्यहं यथा। ___ यथा चेत् शुद्धचिद्रूपं मुक्तिः किं ते न हस्तगा।
हे आत्मन् ! जिस प्रकार प्रतिदिन तू परद्रव्यों का स्मरण करता है, स्त्रीपुत्र आदि को अपना मान उन्हीं की चिन्ता में मग्न रहता है, उसी प्रकार यदि तू 'शुद्धचिद्रूप' का भी स्मरण करे-उसी के ध्यान और चिन्तवन में अपना समय व्यतीत करे तो क्या तेरे लिये मोक्ष समीप न रह जाये? अर्थात् तू बहुत शीघ्र ही मोक्ष सुख का अनुभव करने लग जाये। 15-6।।
पुस्तकै र्यत्परिज्ञानं परदव्यस्य मे भवेत्। तद्धेयं किं न हेयानि तानि तत्त्वावलंबिनः।। मैं अब तत्वावलंबी हो चुका हूँ-अपना और पराये का मुझे पूर्ण ज्ञान हो चुका है, इसलिये शास्त्रों से उत्पन्न हुआ परद्रव्यों का ज्ञान भी जब मेरे हेयत्यागने योग्य है तब उन परद्रव्यों के ग्रहण का तो अवश्य ही त्याग होना चाहिये, उनकी ओर झांककर भी मुझे नहीं देखना चाहिये।।15-13।।
जो मनुष्य गरिष्ठ या भरपेट भोजन करेगा और जनसमुदाय में रहेगा, वह ध्यान और स्वाध्याय कदापि नहीं कर सकता, इसलिये उत्तम पुरूषों को