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जिनागम के अनमोल रत्न]
[29 जिस प्रकार अंधे के सामने नाचना और बहरे के सामने गीत गाना व्यर्थ है उसी प्रकार बहिरात्मा के सामने 'शुद्धचिद्रूप' की कथा भी कार्यकारी नहीं है; परन्तु जिस प्रकार भूखे के लिये अन्न और प्यासे के लिये जल हितकारी है, उसी प्रकार अन्तरात्मा के सामने कहा गया 'शुद्धचिद्रूप' का उपदेश भी परमहित प्रदान करने वाला है।।3-23-24।।
इस परम पावन चिद्रूप के स्मरण करने में न किसी प्रकार का क्लेश उठाना पड़ता है, न धन का व्यय, देशान्तर में गमन और दूसरे से प्रार्थना करनी पड़ती है, किसी प्रकार की शक्ति का क्षय, भय, दूसरे को पीड़ा, पाप, रोग, जन्म-मरण और दूसरे की सेवा का दुख भी नहीं भोगना पड़ता, इसलिये अनेक उत्तमोत्तम फलों के धारक भी इस शुद्धचिद्रूप के स्मरण करने में हे विद्वानों! तुम क्यों उत्साह और आदर नहीं करते? यह समझ में नहीं आता 14-1।। - संसार में भोगभूमि, स्वर्गभूमि, विद्याधरलोक और नागलोक की प्राप्ति तो दुर्गम-दुर्लभ है; परन्तु 'शुद्धचिद्रूप' की प्राप्ति अति सरल है, क्योंकि चिद्रूप के साधन में सुख, ज्ञान, मोचन, निराकुलता और भय का नाश ये साथ-साथ होते चले जाते हैं और भोगभूमि आदि के साधन में बहुत काल के बाद दूसरे जन्म में होते हैं।।4-2-3।।
जैन शास्त्र एक अपार सागर है और उसमें परमात्मा के नामरूपी अनन्त रत्न भरे हुए हैं, उनमें से भले प्रकार परीक्षा कर और सबों में अमूल्य उत्तम मान यह 'शुद्धचिद्रूप' का नामरूपी रत्न मैंने ग्रहण किया है। 4-9।।
प्रोद्यन्मोहाद् यथा लक्ष्यां कामिन्यां रमते च हृत।
तथा यदि स्वचिद्रूपे किं न मुक्तिः समीपगा।
मोह के उदय से मत्त जीव का मन जिस प्रकार संपत्ति और स्त्रियों में रमण करता है, उसी प्रकार यदि वही मन उनसे अपेक्षा कर शुद्धचिद्रूप की
ओर झुके-उसमें प्रेम करे, तो देखते-देखते ही इस जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाये। 4-17।।