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जिनागम के अनमोल रत्न]
[27 भगवान जिनेन्द्र ने अंगप्रविष्ट (द्वादशांग) और अंगबाह्य-दो प्रकार के शास्त्रों का प्रतिपादन किया है। इन शास्त्रों में यद्यपि अनेक पदार्थों का वर्णन किया है; तथापि वे सब हेय कहे हैं और उपादेय एक 'शुद्धचिद्रूप' को बतलाया है। 2-17।।
__ज्ञान को तराजू की कल्पना कर उसके एक पलड़े में समस्त उत्तमोत्तम गुण, जो भाँति-भाँति के सुख प्रदान करने वाले हैं, अत्यन्त रम्य और भाग्य से प्राप्त हुए हैं, इकट्ठे रखें और दूसरे पलड़े में अतिशय विशुद्ध केवल 'मैं शुद्धचिद्रूप हूँ' ऐसी स्मृति को रखें तब भी वे गुण 'शुद्धचिद्रूप' की स्मृति की तनिक भी तुलना नहीं कर सकते ।।2-21 ।।
देवं श्रुतं गुरूं तीर्थं भदंतं च तदाकृति।
शुद्धचिदूप सद्ध्यान हेतुत्वाद् भजते सुधी।।
देव, शास्त्र, गुरू, तीर्थ और मुनि तथा इन सबकी प्रतिमा शुद्धचिद्रूप के ध्यान में कारण हैं-बिना इनकी पूजा सेवा किये शुद्धचिद्रूप की ओर ध्यान जाना सर्वथा दुसाध्य है, इसलिये 'शुद्धचिद्रूप' की प्राप्ति के अभिलाषी विद्वान, अवश्यं देव आदि की सेवा उपासना करते हैं ।।3-2।।
शुद्धचिद्रूप के ध्यान करते समय इन्द्रिय और मन के अनिष्ट पदार्थ भी यदि उसकी प्राप्ति में कारण स्वरूप पड़ें तो उनका आश्रय कर लेना चाहिये
और इन्द्रिय मन को इष्ट होने पर भी यदि वे उसकी प्राप्ति में कारण न पड़ेबाधक पड़े तो उन्हें सर्वथा छोड़ देना चाहिये।।3-3।।।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप पदार्थों में जो पदार्थ 'शुद्धचिद्रूप' के स्मरण करने में हितकारी न हो उसे छोड़ देना चाहिये और जो उसकी प्राप्ति में हितकारी हो उसका बड़े प्रयत्न से आश्रय करना चाहिये।।3-4।।
स्वल्पकार्य कृतौ चिन्ता महाबजायते धुवं । मुनीनां शुद्धचिदूप ध्यानपर्वत भंजने ।।