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[जिनागम के अनमोल रत्न ___ 13. चतुर्दश गुणस्थानाधिकार : जिन-प्रतिबिम्बका माहात्म्य जाके मुख दरससौं भगतके नैननिकौं ,
थिरताकी बानि बढ़े चंचलता विनसी। मुद्रा देखि केवलीकी मुद्रा याद आवै जहां,
जाके आगै इंद्रकी विभूति दीसै तिनसी।। जाकौ जस जपत प्रकास जगै हिरमैं ,
__ सोइ सुद्धमति होइ 'हुती जु मलिनसी। कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, सोहै जिनकी छबि सुविद्यमान जिनसी।।2।।
(जिन-मूर्ति पूजकों की प्रशंसा) जाके उर अंतर. सुदिष्टि लहर लसी,
विनसी मिथ्यात मोहनिद्राकी ममारखी। सैली जिनशासनकी फैली जाकै घट भयौ ,
गरबको त्यागी षट - दरबको पारखी ।। आगमकैअच्छर मरे हैं जाके श्रवनमैं ,
हिरदै - भंडारमैं समानी वानी आरखी। कहत बनारसी बलप भवथिति जाकी ,
सोई जिन प्रतिमा प्रवांनै जिन सारखी ।।3।।
(पाँच कारणोंसे सम्यक्त्वका विनाश होता है) ग्यान गरब मति मंदता, निठुर वचन उदगार । रूदभाव आलस दसा , नास पंच परकार ।। 37।।
ग्रन्थ समाप्ति और अन्तिम प्रशस्ति : दोहा घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन । मति - मदिराके पानसौं, मतवाला समुझै न ।।