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________________ 216] [जिनागम के अनमोल रत्न (परमार्थ की शिक्षा) बानारसी कहै भैया भव्य सुनौ मेरी सीख, कैहूं भांति कैसैंहूकै ऐसौ काजु कीजिए। एकहू मुहूरत मिथ्यातकौ विधुंस होइ , .. ग्यानकौं जगाइ अंस हंस खोजि लीजिए। वाहीको विचार वाकौ ध्यान यहै कौतूहल, यौंही भरि जनम परम रस पीजिए। तजि भव-वासकौ विलास सविकाररूप , ...-अंतकरि मोहकौ अनंतकाल जीजिए ।।24।। (जिनराज का यथार्थ स्वरूप) जिनपद नाहिं शरीरको, जिनपद चेतनमाँहि । जिनवर्नन कछु और है , यह जिनवर्नन नाहिं ।।27।। (निजात्मा का सत्य स्वरूप) कहै विचच्छन पुरूष सदा मैं एक हौं।। अपने रससौं भन्यौ आपनी टेक हौं । मोहकर्म मम नांहि नाहि भ्रमकूप है। ... सुद्ध चेतना सिंधु हमारौ रूप है ।।33 ।। 2. अजीवद्वार : श्री गुरूकी पारमार्थिक शिक्षा भैया जगवासी तू उदासी है} जगतसौं, . एक छ महीना उपदेस मेरौ मानु रे ।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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