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[जिनागम के अनमोल रत्न (40) समयसार नाटक
(मंगलाचरण) निज स्वरूपको परम रस, जामैं भरौ अपार । बन्दौं परमानन्दमय, समयसार अविकार ।। 1।।
(सम्यग्दृष्टि की स्तुति) भेदविज्ञान जग्यौ जिन्हके घट, सीतल चित्त भयौ जिम चंदन। केलि करें सिव मारगमैं , जग महिं जिनेसूरके लघु नंदन ।। सत्यसरूप सदा जिन्हकै, प्रगटयौ अवदात मिथ्यात-निकंदन। सांतदसा तिन्हकी पहिचानि, करैकर जोरिबनारसि वंदन।।6।।
(सवैया इकतीसा) स्वारथके-साचे परमारथके साचे चित्त,
साचे साचे बैन कहैं साचे जैनमती हैं। काहूके विरुद्धि नाहिं परजाय-बुद्धि नाहिं,
आतमगवेषी न गृहस्थ हैं न जती हैं।। सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसै घटमैं प्रगट सदा,
__ अंतरकी लच्छिसौं अजाची लच्छपती हैं। दास भगवन्त के उदास रहैं जगतसौं,
सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं ।।7।।
(मिथ्यादृष्टि का लक्षण) धरम न जानत बखानत भरमरूप, ठौर ठौर ठानत लराई पच्छपातकी। भूल्यो अभिमानमैं नपाउ धरै धरनी मैं, हिरदैमैं करनी विचारै उतपातकी।। फिरै डांवाडोलसौ करमके कलोलिनिमैं, है रही अवस्था सुबघूलेकैसे पातकी। जाकी छाती ताती कारी कुटिल कुवाती भारी, ऐसौ ब्रह्मघाती हैमिथ्याती महापातकी॥॥