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[जिनागम के अनमोल रत्न इसलिये मोहनीय कर्म के उदय के अभाव में जो शुद्धोपयोग होता है उसका दूसरा नाम चारित्र है और वही निश्चय से उत्कृष्ट व्रत है।।256।।
__ शुभोपयोग विरूद्ध कार्यकारी है यह बात विचार करने पर असिद्ध भी नहीं प्रतीत होती, क्योंकि शुभोपयोग एकान्त से बन्ध का कारण होने से वह शुद्धोपयोग के अभाव में ही पाया जाता है।।259।।
बुद्धि दोष से ऐसी तर्कणा भी नहीं करनी चाहिये कि शुभोपयोग एक देश निर्जरा का कारण है क्योंकि न तो शुभोपयोग ही बंध के अभाव का कारण है और न अशुभोपयोग ही बन्ध के अभाव का कारण है। 260।।
कर्मों के ग्रहण करने की क्रिया का रूक जाना ही स्वरूपाचरण है, वही धर्म है, वही शुद्धोपयोग है और वही चारित्र है। 261।।
शुद्धोपलब्धिशक्तिर्या लब्धिज्ञानातिशायिनी। सा भवेत्सति सम्यक्त्वे शुद्धो भावोऽथवापि च ।।266।। यत्पुनर्दव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तद्ज्ञानं न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबन्धकृत्।।267।।
शुद्ध आत्मा के जानने की शक्ति जो कि ज्ञान में अतिशय लाने वाली लब्धिरूप है वह सम्यक्त्व के होने पर ही होती है, अथवा शुद्धभाव भी सम्यक्त्व के होने पर ही होता है। 266 ।। और जो द्रव्य चारित्र और श्रुतज्ञान है वह यदि सम्यग्दर्शन के बिना होता है तो वह न ज्ञान है, न चारित्र है। यदि है तो केवल कर्मबन्ध करने वाला है। 267।।
कोई मुनि मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। वे यद्यपि ग्यारह अंग के पाठी होते हैं और महाव्रतादि क्रियाओं को बाह्यरूप से पूर्णरूप से पालन करते हैं तथापि उन्हें अपने शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं होता, इसलिये वे अपने परिणामों के द्वारा सम्यग्ज्ञान से रहित ही होते हैं। 4-18।।
जिस प्रकार कोई वैद्य दूसरे के उपदेश के वाक्यों से दूसरे के शरीर में