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जिनागम के अनमोल रत्न]
जहिं भावइ तहिं जाहि जिय जं भावइ करि तं जि। केम्बइ मोक्खुण अस्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जंजि।70॥
अर्थ :- हे जीव! जहाँ तेरी इच्छा हो वहां जा और जो तुझे अच्छा लगे वह कर, लेकिन जब तक मन की शुद्धि नहीं है, तब तक किसी तरह भी मोक्ष नहीं हो सकता।
बोह-णिमित्तें सत्थु किल लोई पढिज्जइ इत्थु।
तेण विबोहुण जासु बरू सो किं मूदुण तत्थु।।4।। अर्थ :- इस लोक में नियम से ज्ञान के निमित्त शास्त्र पढ़े जाते हैं, परन्तु शास्त्र पढ़ने पर भी जिसे उत्तम ज्ञान-सम्यग्ज्ञान-आत्मज्ञान नहीं हुआ, वह क्या मूर्ख नहीं है? मूर्ख है, इसमें सन्देह नहीं।
भावार्थ :- स्व-संवेदन ज्ञान के बिना शास्त्रों के पढ़े हुए भी मूर्ख हैं, और जो कोई परमात्मज्ञान के उत्पन्न करने वाले छोटे-थोड़े शास्त्रों को जानकर भी वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान की भावना करते हैं-के मुक्त हो जाते हैं।
वैराग्य मैं लगे हुए जो मोहशत्रु को जीतने वाले हैं, वे थोड़े शास्त्रों को पढ़कर ही सुधर जाते हैं-मुक्त हो जाते हैं और वैराग्य के बिना सब शास्त्रों को पढ़ते हुए भी मुक्त नहीं होते, यह निश्चय जानना।
इस बहाने से शास्त्र पढ़ने का अभ्यास नहीं छोड़ना और जो विशेष शास्त्र के पाठी हैं उनको दूषण मत देना। जो शास्त्र के अक्षर बता रहा है और आत्मा में चित्त नहीं लगाया वह ऐसे जानना जैसे किसी ने कण रहित बहुत भूसे का ढेर कर लिया हो, वह किसी काम का नहीं। इत्यादि पीठिका मात्र सुनकर जो विशेष शास्त्रज्ञ है, उनकी निन्दा नहीं करना और जो बहुश्रुत है उनको भी अल्प शास्त्रज्ञों की निन्दा नहीं करना चाहिये। क्योंकि पर के दोष ग्रहण करने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, जिससे ज्ञान और तप का नाश होता है-यह निश्चय से जानना।