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[जिनागम के अनमोल रत्न
सोवण्णियं वि णियलं बंधदि कालायसं वि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।। ज्यों लोह की त्यों कनककी जंजीर जकड़े पुरूष को । इस रीति से शुभ या अशुभ कृत, कर्म बांधे जीव को ।।146 ।। रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसम्पत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्जा ।। जीव रागी बांधे कर्म को, वैराग्यगत मुक्ती लहे । ये जिनप्रभु उपदेश है नहिं रक्त हो तू कर्म से । 1150 ।। परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तबं वदं च धारेदि । तं सब्बं बालतवं बालवदं बेंति सब्बहू || बदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुब्बंता । परमट्ठबाहिरा जे णिब्वाणं ते ण विंदति ।। परमार्थ में नहिं तिष्ठकर, जो तप करें व्रत को धरें । तप सर्व उसका बाल अरू, व्रत बाल जिनवरने कहें।।152 ॥ व्रत नियम को धारे भले, तपशील को भी आचरे । परमार्थ से जो बाह्य वो, निर्वाणप्राप्ति नहिं करे ।।153॥ परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छं ति । संसारगमणहेतुं वि मोक्खहे दुं अजाणता ।। परमार्थबाहिर जीवगण, जानें न हेतु मोक्ष का । अज्ञान से वे पुण्य इच्छें, हेतु जो संसार का ।।154।। मोत्तूण णिच्छयट्ठ बवहारेण विदुसा पवट्ठति । परमट्ठमस्सिदाणं दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।। विद्वान जन भूतार्थ तज, व्यवहार में वर्तन करे । पर कर्मनाश विधान तो, परमार्थ आश्रित संत के ।।156 ।।