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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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अनबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जो अविशेष देखे आत्म को । वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो ।।15 ।। दंसणणाण चरित्ताणि सेविदब्बाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाणि तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। दर्शनसहित नित ज्ञान अरू, चारित्र साधु सेवीये । पर ये तीनों आत्मा हि केवल, जान निश्चयदृष्टि में ।।16 ।। जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥ 17 ॥ एवं हि जीवराया णादब्बो तह य सद्दहे दब्बो । अणुचर दब्बो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥18 ॥ ज्यों पुरूष कोई नृपति को भी, जानकर श्रद्धा करे । फिर यत्न से धन अर्थ वो, अनुचरण राजा का करे ।। जीवराज को यों जानना, फिर श्रद्धना इस रीति से । उसका ही करना अनुचरण, फिर मोक्ष अर्थी यत्न से ।। सब्बे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदब्बं ।। सब भाव पर ही जान, प्रत्याख्यान भावों का करे । इससे नियम से जानना कि, ज्ञान प्रत्याख्यान है । 34 ।। णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ।। कुछ मोह वो मेरा नहीं, उपयोग केवल एक मैं । इस ज्ञान को ज्ञायक समयके, मोहनिर्ममता कहे । 36 ।। अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूबी । ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं वि ।।