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जिनागम के अनमोल रत्न]
[169 करता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष को मूल से उखाड़कर इसके फलों का भक्षण करूंगा। नील लेश्या वाला विचारता है और कहता है मैं इस वृक्ष को स्कन्ध से काटकर इसके फल खाऊंगा। कापोत लेश्या वाला कहता है मैं इस वृक्ष की बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊंगा। पीत लेश्या वाला कहता है मैं इस वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को काटकर इसके फलों को खाऊंगा। पद्मलेश्या वाला कहता है कि मैं इस वृक्ष के फलों को तोड़कर खाऊंगा तथा शुक्ल लेश्या वाला विचारता है और कहता है कि मैं इस वृक्ष से स्वयं टूटकर नीचे पड़े हुए फलों को ही खाऊंगा। इस तरह मन पूर्वक वचनादि की प्रवृत्ति होती है वह लेश्याकर्म है।।507-508 ।।
छह लेश्या का स्वरूप (1) तीव्र क्रोध करने वाला हो, बैर को न छोड़े, युद्ध करने का (लड़ने का) जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के भी वश न हो ये सब लक्षण 'कृष्णलेश्या' वाले जीव के हैं। 1509 ।।
(2) काम करने में मन्द हो अथवास्वछन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला चातुर्य से रहित हो, स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों के विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायाचारी हो, आलसी हो, दूसरे लोग जिसके अभिप्राय को सहसा न जान सकें तथा जो अति निद्रालु और दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धनधान्य के विषय में जिसकी अतितीव्र लालसा हो, ये 'नील लेश्या' वाले के चिन्ह है।।510-511 ।।
(3) दूसरे के ऊपर क्रोध करना, दूसरे की निन्दा करना, अनेक प्रकार से दूसरों को दुख देना अथवा औरों से बैर करना, अधिकतर शोकाकुल रहना तथा भयग्रस्त रहना या हो जाना, दूसरों के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी नाना प्रकार से प्रशंसा करना, दूसरे के ऊपर विश्वास न करना, अपने समान दूसरों को भी मानना, स्तुति करने वाले पर सन्तुष्ट हो जाना, अपनी हानि वृद्धि को कुछ भी न समझना, रण में मरने की प्रार्थना करना, स्तुति करने वाले को खूब धन दे डालना, अपने कार्य-अकार्य की कुछ भी गणना न करना, ये सब 'कापोत लेश्या' वाले के चिन्ह हैं। 512-513-514।।