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[जिनागम के अनमोल रत्न
ऐसे शुद्धात्मा को साक्षात् करने वाली दृष्टि ही समस्त दुखदायी विकल्पों को भस्म करने वाली है और ये ही प्रसिद्ध परम ब्रह्म स्वरूप है तथा ये ही योगियों को उपादेय है ।।11।।
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तदर्थमेव मध्येत बुधैः पूर्वं श्रुतार्णवः । ततश्चामृतमप्यन्यत् वार्तमेव मनीषिणाम् ।।
ज्ञानी को प्रथम श्रुतसागर का मंथन करने के लिये कहा, उसका कारण शुद्ध स्व आत्मा का साक्षात्कार इस दृष्टि से होता है अथवा संवित्ति से प्राप्त होता है और जिस मंथन से अमृत (मोक्षसुख की प्राप्ति होती हैं इसके लिये अन्य सब तो ज्ञानी-मनीषियों की निपुणता अथवा बुद्धि कुशलता है (आगम ज्ञान प्रथम कहा)। शुद्ध स्व आत्मा का साक्षात्कार करने वाली दृष्टि से अमरत्वं अर्थात् मोक्षसुख की प्राप्ति होती है, इसके लिये मुख्य श्रुत का अभ्यास करने को कहा और यही ज्ञानी की सच्ची बुद्धि और कुशलता है । । 12 ।।
यद्गिराभ्यस्यतः सा स्याद् व्यवहारात्स सद्गुरूः । स्वात्मैव निश्चयात्तस्यास्तदन्तर्वाग्भवत्वतः ।। जिसकी वाणी द्वारा योग अभ्यासी को ऐसी दृष्टि प्राप्त होती है उसे व्यवहार से सद्गुरू कहा है और निश्चय से अपना आत्मा ही ऐसी दृष्टि और वाणीरूप सद्गुरू है जिसे अंतरनाद सुनाई देता है । 113 |
अहमेवाहमित्यात्म- ज्ञानादन्यत्र
चेतनाम् । इदमस्मि करोमीदमिदं भुञ्ज इति क्षिये ।।
'मैं' मैं ही हूं; इस आत्मज्ञान से भिन्न जो 'ये मैं हूँ, ये मैं करता हूँ, ये मैं भोगता हूँ' इस प्रकार की चेतना - चिन्तवन को हे भाई! तू छोड़ | 18 || यद्यदुल्लिखति स्वान्तं तत्तदस्वतया त्यजेत् । तथा विकल्पानुदये दोद्योत्यात्माच्छ चिन्मये ।। अन्त:करण में जिस-जिस का विचार होता है उसका चित्र खड़ा होता