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जिनागम के अनमोल रत्न]
[125 हे साधु! तुमको अब भी स्त्रियों की वार्ता कैसे रूचती है? तुम्हारा मुख तो दुर्गन्धयुक्त है, शरीर मैल से भरा हुआ है, भिक्षा से भोजन मिलता है कठोर
भूमि प्रतिदिन की शय्या है, कमर में लंगोट भी नहीं है, सिर मुंडा हुआ है, • लोगों को तुम आधे जले हुए मुर्दे के समान दिखाई देते हो।।7।।
अङ्गशोणितशुक्र सम्भवमिदम्मेदोस्थिमज्जाकुलम्, बाह्ये माक्षिकपत्रसन्निभमहो चावृतं सर्वतः। नोचेत्काकबकादिभिर्वपुरहो जायेत् भक्ष्यं धुवं, दृष्द्वाद्यापि शरीर सद्मनि कथं निर्वेगतानास्तिते ।। शोणित वीरज सों उपजी यह देह अपावन बस्तु भरी है। बाहिर माक्षिक पंख समान जु, चाम लपेटन सों सुथरी है। नातर वायस और बकादिक भुञ्जत संशय कोन करी है। यों लख अद्यपि तें बहु विस्मय देह विर्षे ममता न हरी है।
अरे ! इस शरीर को देखकर अब भी शरीर रूप घर से वैराग्य नहीं है, कैसे शरीर से? रक्त वीर्य से बने हड्डी मांस मज्जादि से भरे, बाहर से सर्व तरफ से मक्खी के परों के समान चमड़ी से रूका हुआ है। नहीं तो काक, बगुलादिक पक्षियों के द्वारा यह शरीर खा लिया जाता । । ।।
देह बुरी दुर्गन्ध भरी. यह, नौ मल द्वारा बहैं नित यातूं। ताहि विलोक न होत विराग, अहो चित में इस पूछत तासूं। कौन अपावन वस्तु धरा पर, हो विरती चित में लख जासूं। केसर आदि सुगंधित वस्तु, लहै दुर्गन्ध स्पर्शत तासूं। जो घर में धन हो, कदापि करै तिय सोच मरे बलमा की। जो नहिं हो धन तौ नित रोबत, धारहिये अभिलाष जिवा की। दग्ध किये पर सर्व कुटुंबिन स्वार्थ लगैं ममता तज ताकी। केतिक वर्ष गये अबलाजन, भूलहिं नाम न लै सुधिवाकी।