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जिनागम के अनमोल रत्न]
[11 अर्थ :- जिनदेव देह-देवालय में विराजमान हैं, परन्तु जीव (ईंटपत्थर के) देवालयों में देखता फिरता है - यह मुझे कितना हास्यास्पद लगता है, जैसे कोई मनुष्य सिद्ध हो जाने पर भी भिक्षा के लिये भ्रमण करे।
शास्त्र पर्दै मठ में रहै, शिर के लुंचें केश। पिछी-कमण्डल के धरें, धर्म न होता लेश।।47।।
आउ गलइ णवि मणु गलई णवि आसा हु गलेइ। मोह फुरइ गवि अप्प हिउ इम संसार भमेई।49॥ आयु गलै मन ना गलै, गलै न इच्छा मोह।
आतम हित धरते नहीं, यों भ्रमते संसार ।।
अर्थ :- आयु गल जाती है पर मन नहीं गलता और न ही आशा गलती है। मोह स्फुरित होता है परन्तु आत्महित स्फुरित नहीं होता - इस तरह जीव संसार में भ्रमण किया करता है।
जेहउ मणु बिसयहँ रमइ तिसु जइ अप्प मुणेइ। जोइउ भणइ हो जोइयहुलहु णिब्बाणुलहेइ ।।5।। ज्यों मन विषयों में रमें, त्यों हो आतम लीन।
शीघ्र मिलै निर्वाणपद, धरै न देह नवीन।। अर्थ :- जिस तरह मन विषयों में रमण करता है, उस तरह यदि वह आत्मा को जानने में रमण करे, तो हे योगिजनों! योगी कहते हैं कि जीव शीघ्र ही निर्वाण पा जाये।
व्यवहारिक धंधों फंसे, करे न आतम ज्ञान। यह कारण जग जीव ये, पावे नहिं निर्वाण।।52।। नर्क बास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर। कर शुद्धातम भावना, शीघ्र कहो भवतीर।।1।। सत्थ पढंतह ते वि जड अप्पा जे ण मुणंति। तहिं कारणिए जीव फुडुणहुणिब्बाणुलहंति॥3॥ शास्त्र पाठी भी मूर्ख है, जो निज तत्त्व अजान। यह कारण जग जीव यह, पावे नहीं निर्वाण॥