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योगसार निर्मल ध्यानारूढ़ हो, कर्म कलंक नशाय।
हुये सिद्ध परमात्मा, वन्दत हूँ जिनराय॥१॥ चार घातिया क्षय करि, लहा अनन्त चतुष्ट। वन्दन कर जिन चरण को, कहूं काव्य सुइष्ट ॥२॥ इच्छक जो निज मुक्ति का, भव भय से डर चित्त। उन्हीं भव्य सम्बोध हित, रचा काव्य इक चित्त ॥३॥ जीव काल संसार यह, कहे अनादि अनन्त। मिथ्यामति मोहित दुःखी, सुख नहिं कभी लहन्त॥४॥ चार गति दुःख से डरे, तो तज सब परभाव। शुद्धात्म चिन्तन करि, लो शिव सुख का भाव॥५॥ विविध आत्मा को जानके, तज बहिरातम रूप।
अन्तर आतम होय के, भज परमात्म स्वरूप॥६॥ मिथ्यामति से मोहिजन, जाने नहिं परमात्म। भ्रमते जो संसार में, कहा उन्हें बहिरात्म ॥७॥ परमात्मा को जानके, त्याग करे परभाव। सत् पंडित भव सिन्धु को पार करे जिमि नाव॥८॥ निर्मल-निकल-जिनेन्द्र शिव, सिद्ध विष्णु बुद्ध शान्त। सो परमातम जिन कहे, जानो हो निर्धान्त॥ ९॥ देहादिक जो पर कहे, सो मानत निज रूप। बहिरातम वे जिन कहें, भ्रमते बहु भवकूप॥ १०॥