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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
जहाँ चेतन तहाँ सकल गुण, यह सर्वज्ञ वदन्त। इस कारण सब योगिजन! शुद्ध आतम जानन्त॥८५॥ एकाकी इन्द्रिय रहित, करि योग त्रय शुद्ध। निज आत्म को जानकर, शीघ्र लहो शिवसुख॥८६॥ बन्ध-मोक्ष के पक्ष से, निश्चय तू बन्ध जाय। रमे सहज निज रूप में, तो शिव सुख को पाय॥८७॥ सम्यग्दृष्टि जीव का, दुर्गति गमन न होय। यद्यपि जाय तो दोष नहिं, पूर्व कर्म क्षय होय॥८८॥ रमें जो आत्मस्वरूप में, तजकर सब व्यवहार। सम्यग्दृष्टि जीव वह, शीघ्र होय भवपार ॥ ८९ ॥ जो-सम्यक्त्व प्रधान बुध, वही त्रिलोक प्रधान। पावे केवलज्ञान झट, शाश्वत सौख्य निधान॥९॥ अजरामर बहुगुण निधि, निज में स्थित होय। कर्मबन्ध नव नहिं करे, पूर्व बद्ध क्षय होय ॥९१॥ पंकज रह जल मध्य में, जल से लिप्त न होय। रहत लीन निज रूप में, कर्म लिप्त नहिं सोय॥९२ ॥ शम सुख में लवलीन जो, करते निज अभ्यास। करके निश्चय कर्म क्षय, लहे शीघ्र शिववास ॥९३॥ पुरुषाकार पवित्र अति, देखो आतम राम। निर्मय तेजोमय अरु, अनन्त गुणों का धाम ॥ ९४॥ जो जाने शुद्धात्म को, अशुचि देह से भिन्न। ज्ञाता सो सब शास्त्र का, शाश्वत सुख में लीन॥९५॥ निज-पर रूप के अज्ञ जन, जो न तजे परभाव। ज्ञाता भी सब शास्त्र का, होय न शिवपुर राव॥९६॥