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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
मन न घटे आयु घटे, घटे न इच्छा भार। नहिं आतम हित कामना, यों भ्रमता संसार ॥४९॥ ज्यों रमता मन विषय में त्यों ज्यों आतमलीन। मिले शीघ्र निर्वाण पद, धरे न देह नवीन ॥५०॥ नर्क वास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर। करि शुद्धातम भावना, शीघ्र लहो भवतीर ॥५१॥ जग के धन्धे में फँसे, करे न आतम ज्ञान। जिसके कारण जीव वे, पाते नहिं निर्वाण॥५२॥ शास्त्र पाठि भी मूढ़सम, जो निज तत्त्व अजान। इस कारण इस जीव को, मिले नहीं निर्वाण ॥ ५३॥ मन इन्द्रिय से दूर हट, क्यों पूछत बहु बात। राग प्रसार निवार कर, सहज स्वरूप उत्पाद ॥ ५४॥ जीव पुद्गल दोऊ भिन्न है, भिन्न सकल व्यवहार। तज पुद्गल ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार ॥ ५५ ॥ स्पष्ट न माने जीव को, अरु नहिं जानत जीव। छूटे नहिं संसार से, भावे जिन जी अतीव ॥ ५६॥ रत्न-हेम-रवि-दूध दधि, घी पत्थर अरु दीप। स्फटिक रजत और अग्नि नव त्यों जानों यह जीव॥५७॥ देहादिक को पर गिने, ज्यों शून्य आकाश। लहे शीघ्र परब्रह्म को, केवल करे प्रकाश ॥५८॥ जैसे शुद्ध आकाश है, वैसे ही शुद्ध जीव। जड़रूप जानो व्योम को, चेतन लक्षण जीव॥ ५९॥ ध्यान धरे अभ्यन्तरे, देखत जो अशरीर। मिटे जन्म लज्जा जनक, पिये न जननी क्षीर ॥६०॥