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जीवस्स ण संवरणं परमट्ठणएण सुद्धभावादो । संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिच्चं ॥६५॥
जीवात्मामें न वंर संवर भाव होता, वो तो. विशुद्धनयसे शुचि भाव ढोता । आत्मा विमुक्त वर संवर भाव से रे! ऐसा सुचिंतन सदा कर चावसे रे! ॥६५।।
પરમાર્થ શુદ્ધ નિશ્ચયનયે સંવર નહિ કદી જીવમાં, સંવર રહિત નિત ચિંતવો નિજ આત્મ શુદ્ધ સ્વરૂપમાં, ૬૫
अर्थ- परन्तु शुद्ध निश्चयनयसे (वास्तवमें) जीवके संवर ही नहीं है। इसलिये संवरके विकल्पसे रहित आत्माका निरन्तर शुद्धभावसे चिन्तवन करना चाहिये। भावार्थ- आम्रव संवर आदि अवस्थायें कर्मके सम्बन्धसे होती हैं, परन्तु वास्तवमें आत्मा कर्मजंजालसे रहित शुद्धस्वरूप है।
પરમ શુદ્ધ નિશ્ચયનયે જીવમાં સંવર જ નથી. તેથી સંવરના વિકલ્પ રહિત આત્માનું શુદ્ધ ભાવપૂર્વક નિરંતર ચિંતવન કરવા યોગ્ય છે.
७० बारस अणुवेक्खा