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श्री डॉ. वीरसागरजी जैन,दिल्ली - - धर्ममंगल का यह विशेषांक पढ़कर बहुत अच्छा लगा। आज पत्रिकाओं को आपके इस सार्थक और रचनात्मक संवाद को बोने के प्रयास का अनुकरण करना चाहिए। श्री पं. सुशील कुमार जैन, इन्दौर -
धर्ममंगल के इस विशेषांक में आपने जो पत्र -व्यवहार आपने आगम-अध्यात्म के आलोक के उदा. सहित जो प्रस्तुति प्रदान की है, वह अत्यंत सराहनीय है। वस्तुतः सम्यक् दर्शन स्वानुभूतिपूर्वक ही होता है। इसका खुलासा सभी आचार्यों ने प्राचीन शास्त्रों में किया है। उसीका अनुसरण पं. राजमलजी पांडे ने कलश टीका में, लाटी संहिता में, पंचाध्यायी में किया है। इसी परंपरा को पं.बनारसी दास ने नाटक समयसार में इनके पश्चात् पं. जयचंदजी छाबड़ा, पं. टोडरमलजी, पं. दीपचंदजी शाह, पं. सदासुखजी, पं. भागचंदजी, पं. दौलतरमजी, पं. द्यानतरायजी आदि सभी ने यह स्वीकार किया है कि चतुर्थ गुणस्थान में स्वानुभूति होती है। वर्तमान युग में श्री कानजी स्वामी ने भी यह स्वीकार किया था। तथा पू. मुनिराज जी श्री वीरसागरजी ने भी इसी का पोषण किया। यह सब अत्यंत स्पष्ट होने पर भी यदि कोई नहीं मानता है तो आश्चर्य लगता है। फिर भी आपने मेहनत तो की है। जो इतना स्पष्ट विवेचन किया। बहुत-बहुत धन्यवाद। . श्री पं.राजमल जी पवैया, भोपाल -
धर्ममंगल का विशेषांक मिला, अध्यात्म चर्चा के योग्य यह विशेषांक बहुतंही उत्तम है। आपके सस प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें। श्री पं. अनुप चंद्र जी जैन, एडवोकेट, फीरोजाबाद -
धर्ममंगल का सम्यक् सम्यक्त्व चर्चा ' यह विशेषांक मिला। आप सिद्ध हस्त लेखिका एवं संपादिका है, आपके इस प्रकाशन के लिए बधाई स्वीकार करें। श्री तुलाराजी जैन, अम्बाह -
धर्ममंगल की यह बहुत ही अच्छी पत्रिका है। यहाँ आपके इस अंक की खूब चर्चा हुई है और प्रशंसा भी करते हैं। इस विशेषांक में आपका सजग, स्पष्टवादी र सही लेखन सबको अच्छा लगता है।