SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दि. १५.१.२००६ पं. हेमचंद जी जैन द्वारा पं. श्री रतनलालजी बैनाड़ा को पत्र आज अभी जिनभाषित दिसंबर ०५ का अंक मिला। मेरे नाम से जिज्ञासा छपी? महाश्चर्य हुआ। मान्यवर बैनाड़ा जी ! दिसंबर २००५ के जिनभाषित अंक में जिज्ञासा समाधान में मेरे नाम से जिज्ञासा छाप कर (उसका समाधान भी मेरे पत्र २९.११.२००५)में उद्धृत धवला(१/१६५) के समाधानानुसार तथा कुछ विस्तृत कर)आपने लगता है, मेरे साथ यह क्या किया है ? मेरे द्वारा पूछी गयी जिज्ञासाओं का समाधान तो नहीं छापा और जो मैंने पूछा ही नहीं उसे कैसे छाप दिया? आपने आ.क.पं.टोडरमलजी को धवला शास्त्र उपलब्ध न होने से उनके द्वारा रचित मोक्षमार्गप्रकाशक तथा अन्य ग्रंथों के बहुत से प्रसंगों को आगम-सम्मत नहीं ठहराया है। इस आपकीदृष्टि के बारे में क्या कहें? पं. टोडरमल जी को तो विद्वत् जगत ने आचार्यकल्प की उपाधि से विभूषित किया था। जिसको आगम-अध्यात्म के कथनों का या चारों अनुयोगों का सत्यार्थ स्वरूप भासित हो गया है तो उसे 'छलं न गृहितव्यम्' (समयसार गा.५)को नहीं भुला देना चाहिए। आ.क. पं. टोडरमल जी ने तो दूध का दूध पानी का पानी कर दिखाया है। भले उनके सामने धवला शास्त्र नहीं था, तथापि उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक में अनंतानुबंधी कषायों को सम्यक्त्व घातक तो मान्य किया ही है, किंतु आप तो मात्र सम्यक्त्व विघातक ही मानते हैं ! चारित्र विघातक नहीं मानते हैं? आप कहते जरूर हैं कि अनंतानुबंधी द्विस्वभावी है, परंतु मानते -मनवाते एक स्वभावी हैं ! ऐसा अन्याय क्यों? जब कि श्रीमद्वीरसेनाचार्य ने उसे दर्शनमोहनीय का भेद न गिनाकर चारित्रमोहनीय का ही भेद सिद्ध कर रहे हैं? तो यह आगम का अपलाप हुआ माना जायेगा या नहीं? आप पत्राचार से हमारा समाधान कर देते तो योग्य होता! परंतु मेरी आशंका नहीं होने पर भी जो हमने पूछा ही नहीं, उसे हमारे नाम से जिनभाषित . में छाप दिया? • मान्यवर महोदय, मेरी-आपकी तत्त्वचर्चा का आधार एक मात्र आगम ही है। अगर कोई पं.टोडरमल जी, पं.जयचंद जी छाबड़ा,पं.गोपालदास जी बरैया, पं.दीपचंदजी शहा, कासलीवाल, आदि विद्वानों को(जिन्होंने तन-मन-धन सब कुछ अर्पण कर मूल कुंदकुंदम्नाय को, जिनवाणी के हार्द को/मर्म को जीवित रखा है!) मान्य नहीं करते हैं,तो क्या कोई उनसे बड़े विद्वान माने जायें? मैंने तो अपने पूर्व पत्रों में बिना आगमाधार के कुछ नहीं लिखा फिर भी आपको मेरी बातें विवेचन/भावार्थ निराधार लगते हैं तो क्या किया जा सकता है? वास्तव में तो आत्मा के विश्वास होने को सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दृष्टि को व्यवहार सम्यग्दृष्टि माननानिश्चय सम्यग्दृष्टि नहीं मानना, गृहस्थ/अविरत सम्यग्दृष्टि को मोक्षमार्गी नहीं माननाआत्मानुभूति रहित मानना आदि बातें मनवाते आये हैं। आपने लिखा है कि आपको १२ वीं शताब्दि तक के ही आचार्य प्रमाण लगते हैं। तो क्या आप श्रीमद्
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy