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कषायों के द्वारा आवरण किये गये चारित्र के आवरण करने में फल का अभाव है। इसलिए उपर्युक्त अनंतानुबंधी कषायों का अभाव ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका अभाव नहीं है क्यों कि सूत्र में इनका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिए अनंतानुबंधी कषायों के उदय से सासादन भाव की उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इसही अन्यथानुपत्ति से इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र को घात करने की शक्ति का होना सिद्ध होता
है।
___ पू. आचार्य वीरसेन महाराज आदि के उपरोक्त प्रमाणों से यह बिलकुल स्पष्ट है कि अनंतानुबंधी सम्यक्त्व का भी घात करती है । इतना और भी विशेष है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक ९ वें अधिकार पं. टोडरमलजी ने इसप्रकार कहा है, यहाँप्रश्न-जो अनंतानुबंधी तो चारित्रमोह की प्रकृति है। सो चारित्र को घातै, या करि सम्यक्त्व का घात कैसे सम्भवै? ताका समाधान-अनंतानुबंधी के उदयतै क्रोधादिरूप परिणाम हो हैं। किछु अतत्त्व श्रद्धान होता नाहीं। ता” अनंतानुबंधी चारित्र ही को घातै है। सम्यक्त्व को नहीं घातै है।' मोक्षमार्ग का यह कथन उपरोक्त आगमप्रमाण के अनुसार न होने से आगम सम्मत नहीं है। जिज्ञासा-२ इसके समाधान में 'सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है।'- इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि दूसरे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व है। क्यों कि दूसरे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व है। क्यों कि दूसरे गुणस्थान वाला णासियम्मोत्तो(गो.जी.२०, प्रा.पं.सं.१/ ९; श्री धवल १/६६) अर्थात् नाशित सम्यक्त्व(जिसका सम्यक्त्व रत्न नष्ट हो चुका ऐसा जीव)कहलाता है। सासादन गुणी असद्दृष्टि है।(धवल १/१६५) वह उपशम सम्यक्त्व के काल के अंत में पतित-नाशित सम्यक्त्व होकर ही सासादन को प्राप्त होता है, स्थितिभूत उपशम सम्यक्त्व के साथ सासादन में नहीं जाता यह अभिप्राय है। ‘सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है ' - इसका अभिप्राय यह है कि उपशम सम्यक्त्व काल को अंतिम ६आवली की अवधि में कोई जीव परिणाम हानिवश सम्यक्त्व रत्न को खोकर(ल.सा.पृष्ठ ८३,मुख्तारी) सासादन (नाशित सम्यक्त्व व मिथ्यात्व गुण के अभिमुख) हो जाता है। (जयधवल १२, लब्धिसार गा. ९९ से १०९, धवल ४/३३९-३४३ आदि)
चौबीस ठाणा में उपशम सम्यक्त्व की प्ररूपणा करते हुए उपशम सम्क्त्व को चौथे थे से ग्यारहवें गुणस्थान तक कहा जाता है, दूसरे गुणस्थान में नहीं कहा जाता है । दूसरे सासादन गुणस्थान में तिर्यंचायु आदि २५ अशुभ प्रकृतियों का बंध होता है, जो उपशम सम्यग्दृष्टि को बिलकुल संभव नहीं है। अतः उपरोक्त समाधान के अनुसार सासादन गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व का काल न मानकर उसका सही अभिप्राय समझना चाहिए। इस द्विती। गुणस्थान, को सासादन सम्यग्दृष्टि कहने का वास्तविक अभिप्राय क्या है? इस संबंध में धवला पुस्तक १, पृष्ठ १६६ का निम्न कथन ध्यान देने योग्य है।