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इसका काल जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण ही है और छद्मस्थ असंख्यात समयोपरांत ही अपने कषाय भावों को जान पाता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम तो केवलज्ञान गम्य ही होते हैं।
मिश्र मोहनीयोदय के निमित्त से मिश्र तृतीय गुणस्थान (मध्यप अंतर्मुहूर्त कालप्रमाण) होता है और इसके भी परिणाम केवलज्ञान गम्य हैं। तत्त्वों का सत्य-असत्य रूप श्रद्धानअश्रद्धान एक ही काल में वर्तता है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान ही तत्त्वनिर्णय कर सच्चा बनता है। इसीलिए धवला १/३९ पृ. पर उसे मंगलकारी सिद्ध किया है।
२. निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्था/ चतुर्थ गुणस्थान में होता है। इसका प्रमाण आप स्वयं ने परमात्म प्रकाश २/१८ की टीका से इसप्रकार दिया है। -
'निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थंकरपरमदेव भरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते,नच तेषां वीतराग चारित्रमस्तीति परस्परविरोधः अस्ति, चेतर्हितेषासंयतत्त्वं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाह। तेषां शुद्धात्मैवोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते। परं किन्तु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते। ......
३. परमार्थतः निश्चय-व्यवहार सम्यक्त्व दोनों एक साथ ही उत्पन्न होते हैं। तथापि कुदेवादिक की मान्यता से रहित एवं अष्टमूलगुण सहित व्यक्ति को ही जिनधर्म की देशना ग्रहण कर सकने योग्य पात्र कहा है, ऐसी निर्मल बुद्धिवाले जीव के जो विशुद्धि प्रगट है वही वीतरागी देव-शास्त्र-गुरू-धर्म की मान्यता वाला पूर्वचर व्यवहारधर्म धारक पात्र जीव है। तदर्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लो.७४देखें जिसमें मूलगुण रहितको देशना का अपात्र कहा है
अविरत सम्यग्दे॒ष्टि का स्वरूप बृ.द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ की टीका में इसप्रकार लिखा हैमिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होने पर अथवा अध्यात्मभाषा से निजशुद्धात्माभिमुख परिणाम होने पर शुद्धात्मभावना से उत्पन्न, निर्विकार .. वास्तविक सुखामृत को उपादेय करके संसार-शरीर और भोगों में जो हेयबुद्धियुक्त सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वह चतुर्थगुणस्थान व्रतरहित दार्शनिक कहलाता है।
इस परिभाषा में सम्यक्त्व की परिभाषा करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग तीनों अनुयोगों से समन्वित है। यही निश्चय-व्यवहार सम्यक्त्व का एक ही काल में उत्पन्न होना है। जैसे पुत्रादि संतान उत्पन्न होने पर जन्मदाता स्त्री-पुरुष को माता-पिता की संज्ञा मिलती है, किंतु विवाहादि पूर्वचर व्यवहार बिना सच्चा निश्चय व्यवहार लागू नहीं पड़ता।
पुनश्च, श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ३३ में गृहस्थ सम्यग्दृष्टि को मोक्षमार्गस्थ कहा ही है, जब कि सम्यक्त्व रहित मुनि को मोक्षमार्गस्थ नहीं कहा। . तथा बृ.द्रव्यसंग्रह गाथा - ४७ मूल में ही कहा है कि -
दुविहंपि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समन्भसह ॥४७॥