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सरागता हेय वीतरागता उपादेय कर वर्तन (आचरण) करने की अवस्था । तदनुसार चतुर्थ, पंचम, षष्ठम, गुणस्थानवर्ती ज्ञानी का जीवन । सभी ज्ञानी जीव यह मानते हैं कि कारण भिन्नता से कार्य भिन्नता होती ही है। जो-जो बंध के कारण है उनसे विपरीत अबंध ( संवरनिर्जरा) के कारण होते हैं। बंध के ५ प्रत्यय हैं। मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग | ये क्रम से ही आते हैं। मिथ्यात्व के जाने पर ही जीव को मोक्षमार्गी हुआ कहा है। उस सम्यग्दृष्टि
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श्रद्धा में सर्व प्रकार का राग हेय ही होता है। पूर्ण वीतरागता ही उपादेय रहती है । तथापि जैसे मिथ्यात्व एक क्षण में चला जाता है और सम्यक्त्व, सच्ची श्रद्धा प्रगट हो जाती है, अर्थात् प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान में आ जाता है परंतु चारित्रमोह क्रम-क्रम से ही जाता है। इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव अशुभ को प्रथम छोड़ता है, शुभ को ग्रहण करता है, लक्ष्य शुद्ध का ही रहता है। इसलिए सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के सरांग चारित्र को जो कि शुभोपयोग रूप शुभभावरूप है, पुण्यबंध का कारण है, पाप का संवर करने वाला है, उसे उपचार से संवर- निर्जरा रूप कहा है, जानना । निश्चय से वीतरागभाव (शुद्धभाव) ही संवर-निर्जरा रूप है। देखो - बृ. द्रव्य संग्रहगाथा ४५ की टीका - एवं प्रवचनसार गाथा - १८१,७९, १९९ की टीका ) स्वशुद्धात्मा का अनुभव रूप शुद्धोपयोग रूप वीतराग चारित्र ( स्वरूप स्थिरता ) ही संवर - निर्जरा है और सराग चारित्र ( अशुभ पाप से बचने के लिए, संसार स्थिति छेदने के लिए) शुभ भाव रूप परिणाम उपचार से संवर-निर्जरा रूप हैं। सराग चारित्र को अपहृत संयम कहा है। जो बाह्य में पंचेंद्रिय विषयों का त्याग है । वह उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से चारित्र है और अंतरंग में जो रागादि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है । व्यवहार ( सराग ) चारित्र से साध्य निश्चय चारित्र (वीतरागता / संवर-निर्जरा) का वर्णन बृ. द्रव्य संग्रह गाथा ४६ में है और इन दोनों प्रकार के मोक्षमार्गों को प्राप्त करने का उपाय ध्यान्याभ्यास है । तदर्थ ब्र. द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ ४७,४८,४९;५० देखें ।
आपने जो भी प्रमाण आगम से लिखे वे सब मान्य हीं है। परंतु उपचार- अनुपचार, व्यवहार - निश्चय रूप संवर-निर्जरा का स्वरूप समझना जरूरी है। अन्यथा उपचार ( सराग चारित्र) को ही परमार्थ ( निश्चय वीतराग चारित्र ) समझने से श्रद्धामूलक अभिप्राय की भूल बनी रहती है । (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय की गाथाएँ - २११, २१२ - २१४ भी इस अर्थ में देखें ।)
जिज्ञासा १६ - मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि जो नवमें ग्रैवेयक तक जाते हैं तथा जिन्हें ११ अंगों तक का ज्ञान प्रगट हो जाता है, क्या उनको आत्मा का विश्वास नहीं होता? क्या उनके संवर-निर्जरा तत्त्व प्रगट होते हैं या नहीं?
आपने जो समाधान लिखा वह योग्य ही है कि उसे विपरीताभिनिवेशरूप मिथ्यात्व का उदय रहता है । मिथ्यात्व रहते हुए व्यवहार सम्यक्त्वरूप आत्मविश्वास संभव नहीं ।
यह जरा विचारणीय बिंदु है । कृपया मो.मा.प्र. पृष्ठ २४५, २४६, २४७, ३११ अवश्य