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है। जब कारण ही न रहा, तो कार्य कहाँ से होगा?)
'नच सम्यग्दृष्टेर्मिथ्याचारित्राभावात्संयतत्वमेव स्यान्न पुनः कदाचित् असंयतत्वात्मित्यारेका युक्ता, चारित्रमोहोदये सति सम्यक् चारित्रस्यानुपपत्तेरसंयतत्वोपपतेः। कात्य॑तो देशतो - नसंयमोनापि मिथ्यासंयम इति व्याहतमपिनभवति, मिथ्यागमपूर्वकस्य संयमस्य पन्चाग्निसाधनादे मिथ्यासंयमत्वात् सम्यगागम पूर्वकस्य सम्यक् संयमत्वात्। ततोऽन्यस्य मिथ्यात्वोदया सत्त्वेपि प्रवर्तमानस्य हिंसादेरसंयमत्वात् ।' (सारांश-कोई शंका करे तो फिर सम्यग्दृष्टि जीव के चतुर्थ गुणस्थान में मिथ्याचारित्र के न रहने से संयमीपना हो भी जावे? फिर कभी भी उसे असंयतपना नहीं होना चाहिए? परंतु ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि चौथे-पाँचवें गुणस्थान में चारित्र गुण का घातक-अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय हो रहा है। ऐसा होने पर सम्यक् चारित्र गुण नहीं बन सकता। वस्तुतः चतुर्थ गुणस्थान में न तो संयम(मुनिपना)है, न देशसंयमव्रती(श्रावकपना) है और न हि मिथ्यासंयम (प्रथम गुणस्थानवत् मिथ्याचारित्र) है। इसप्रकार उसके असंयमपना है जो कि पूर्ण संयम, देश संयम और मिथ्यासंयम से भिन्न है।
'न चासंयमादभेदेन मिथ्यासंयमस्योपदेशाभावभेद एवंति युक्तं तस्य बालतपः शब्देनोपदिष्टत्वात् तत कथंचित् भेदसिद्धे।' अर्थ-किसी का आक्षेप है कि जीव के पाँच भावों में औदयिक असंयतभाव से भिन्न मिथ्यासंयम का कहीं उपदेश नहीं है। इसकारण मिथ्याचारित्र और असंयम का अभेद ही मानना चाहिए। फिर चौथे में या तो मिथ्या चारित्र मानो या संयमीपन स्वीकार करो। ग्रंथकार कहते हैं-ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्यों कि ये असंयम से भिन्न माने गये उस मिथ्या चारित्र का तत्त्वार्थसूत्र छठवें अध्याय में 'बालतप' शब्द से उपदेश किया है। उस कारण मिथ्या चारित्र और असंयम में किसी अपेक्षा से भेद ही सिद्ध है। 'न हि चारित्रमोहोदयमात्राद् भवचारित्रं। दर्शनचारित्र मोहोदयजनितादचारित्रादभिन्नमेवेति साधयितुं शक्यं, सर्वत्र कारण भेदस्य फलाभेदक़त्वप्रसक्तेः मिथ्यादृष्ट्यसंयमस्य नियमेन मिथ्याज्ञान पूर्वकत्वप्रसिद्धः, सम्यग्दृष्ट्यसंयमस्य मिथ्यादर्शनज्ञानपूर्वकत्व विरोधात् विरूद्ध-कारणपूर्वकतयापि भेदाभावे सिद्धान्त विरोधात्।' अर्थ-चतुर्थ गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के संबंध से रहित होकर केवल चारित्रमोहनीय के उदय से होने वाला जो चारित्र है वह पहले गुणस्थान में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय से होने वाले मिथ्याचारित्र से अभिन्न ही है (सदृश है )-इस बात को सिद्ध करना शक्य नहीं है। शक्य न हो तो भी मान लिया तो सर्वत्र कारणभेद होने पर भी कार्यफल में अभेद मानने का प्रसंग आ जायेगा।(इससे क्या अनर्थ हो जायेगा) जिस चतुर्थ गुणस्थान के अचारित्र भाव में केवल चारित्रमोहनीय का उदय है और पहले गुणस्थान के अचारित्र (मिथ्याचारित्र)में दर्शनमोहनीय सहित चारित्रमोहनीय का उदय है। ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं? मिथ्यादृष्टि का असंयम नियम से मिथ्याज्ञानपूर्वक प्रसिद्ध हो रहा है और सम्यग्दृष्टि के असंयम को