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________________ ४२ इसका समाधान आपका सही इसलिए नहीं है कि आपको निश्चय-सम्यक्त्व के रूप -स्वरूप में पूरा विपर्यास है। इसकी सप्रमाण विस्तृत चर्चा मैं जिज्ञासा ३,४ एवं ५ में ऊपर कर आया हँ।वहाँयह सिद्ध कियाजाचुका है कि प्रतिबद्धता (आत्मज्ञान/सम्यग्दर्शन) स्वात्मानुभूतिपूर्वक ही होती है। जिज्ञासा ७-(अ)प्रवचनसारगाथा ८० ता.वृ. टीकाके प्रारंभ में उल्लिखित 'अथ चत्तापावारंम(गाथा ७९)इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादि विनाशाभावे शुद्धात्म लामो न भवति।'...का क्या अर्थ है? महोदय ! आपने इसका अर्थ भी गलत कर दिया। आपने ७९ गाथा का अर्थ कर दिया जब कि ८० वीं गाथा की ता.व. टीका का अर्थ करना था । आपने मोह शब्द का अर्थ चारित्रमोह कर दिया जब कि अनेक जगह तथा इसी गाथा की टीका में मोह शब्द का अर्थ दर्शनमोह किया है, लिखा है स्वयं आचार्यदेव ने ! जिनागम में सर्वत्र मोह का अर्थ दर्शन मोह तथा रागद्वेष (क्षोभ) का अर्थ चारित्रमोह किया है। प्रमाण के लिए आप प्रवचनसार की गाथा८०,८१,८३,८५,८६,८८,८९,९२, १८०, १८८, १९४,१९५,१९६ ता.वृ.टीका देखें । समयसार गाथा २८१ भी देखें। यह तो आप भी मान्य कर रहे हैं,करना भी चाहिए कि शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए मोहादि केविनाश के लिए शुद्धोपयोग आवश्यक है। फिर भी मोह शब्द का आप यहाँ ८० वीं गाथा में चारित्रमोह करें यही आश्चर्य है। इसके अलावा आपने प्रवचनसार गाथा २४८ (दसणणाणुवदेसो.....) की ता.वृ.टीका का अर्थ लिखना क्यों छोड़ दिया? क्यों कि उसमें स्पष्ट रूप से श्रावकों के सामायिकादिध्यान काल में शुद्धोपयोग होता है यह सिद्ध किया है। कृपया पुनर्विचार करें। जिज्ञासा ८ - प्रायोग्यलन्धि में, करणलन्धि में तथा अनिवृत्तिकरणोपरांत होने वाले आत्मा के विश्वास में क्या अंतर है? . ' महोदय ! आपने प्रायोग्यलब्धिस्थ जीव को आत्मा का विश्वास नहीं होना, करणलब्धि में आत्मविश्वास का होना प्रारम्भ होना(पूर्ण आत्मविश्वास नहीं हो पाना, क्यों कि प्रतिबंधक दर्शनमोह/मिथ्यात्व का सद्भाव है) तथा अनिवृत्तिकरण के उपरांत मिथ्यात्व का उपशम हो जाने से आत्मविश्वास पूर्ण प्रकट हो जाता है-मान्य किया है। आप ही के अनुसार इसी आत्मविश्वास ही का नाम सम्यग्दर्शन है। क्यों कि जब तक मिथ्यात्व का उदय है तब तक तत्त्व श्रद्धानमूलक आत्मविश्वास बिल्कुल संभव नहीं है। .. सम्यग्दर्शन-(शुद्धात्मा की रुचि, प्रतीति स्वसंवेदन, आत्मख्याति) को आत्मा का विश्वास शब्द दिया जाना विचारणीय है क्यों कि समयसार गाथा - १३ की टीका में इस शब्द का प्रयोग दोनों ही आचार्यों ने नहीं किया है, मात्र आपके सिवाय? आप ऐसा क्यों कर रहे हैं, आपका मंतव्य/ अभिप्राय समझ पाना कठिन है।
SR No.007151
Book TitleDharmmangal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2009
Total Pages76
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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