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क्वापि काले शुभोपयोग भावना दृश्यते । श्रावकाणामपि सामायिकादिकाले शुद्ध भावना दृश्यते, तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति । परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता, परं किन्तु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, ते यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोग भावनां कुर्वन्ति तथापि शुभोपयोगिन एवं भण्यन्ते । येऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यद्यपि क्वापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथ शुद्धोपयोगिन एव । कस्मात् बहुपदस्य प्रधानत्वादाम्रवननिम्बवनवदिति ॥ २४८ ॥ जिज्ञासा २ - निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन एक साथ होते हैं या आगे पीछे ?
महोदय ! आपने जो निष्कर्ष निकाला है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन पहले होता है तथा निश्चयसम्यग्दर्शन बाद में होता है यह सर्वथा गलत ही है। क्यों कि जो सम्यग्दर्शन दर्शनमोहनीय + अनंतानुबंधीकषाय के उपशम-क्षयोपशम, क्षय से ( विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम रूप) प्रगट होता है वही निश्चयसम्यग्दर्शन है। जब तक आपको यह करणानुयोग सम्मत सम्यक्त्व का लक्षण स्वीकार्य नहीं होगा तब तक चित्त में ऐसी भ्रांति बनी रहेगी । जब भी सम्यग्दृष्टि का उपयोग / विचार शुभाशुभ रूप हो अशुद्धोपयोगरूप परिणमता है तब भी उसका श्रद्धान यथार्थ प्रतीतिरूप बना ही रहता है।
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जब वह मिथ्यात्व अनंतानुबंधी या मिश्र मोहनीय के उदय से निश्चय सम्यक्त्वरूप परिणाम से गिर जायेगा, तभी वह मिथ्यादृष्टि, सासादन मिश्र परिणाम वाला हो जायेगा । इसलिए चतुर्थ, पंचम, षष्ठम गुणस्थानवर्ती जीव चारित्रिक अस्थिरतावश शुभाचरणरूप सराग अवस्था में आने पर भी चतुर्थ - पंचम गुणस्थानवर्ती जीवों के विषयकषाय रूप अशुभराग में जा पड़ने पर भी वे सब सराग सम्यग्दृष्टि कहे जाने पर भी निश्चय सम्यग्दृष्टि ही बने रहते हैं । इसलिए पंचास्तिकाय (ता.वृ. १६०) में गृहस्थ व मुनिराज के सम्यग्दर्शन - ज्ञान समान कहा है । (कृपया सरांग- वीतराग सम्यग्दर्शन बाबद अन्य आगम प्रमाण ६ का विस्तार देखें ।)
अस्तु । आ.क. पं. टोडरमलजी ने मो.मा.प्र. (हिन्दी) पृ. ३३० - ३३१ पर इसका अति सुंदर समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने पूर्वचर एवं सहचर व्यवहार को स्पष्ट करते हुए पूर्वचर व्यवहार को व्यवहाराभास सिद्ध किया है और निश्चय के साथ पाये जाने वाले व्यवहार को समीचीन व्यवहार कहा है तथा एक ही काल में दोनों का होना मान्य किया है। सम्यक्त्व के भेद और उनका स्वरूप इस शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने लिखा है। - अब इस सम्यक्त्व के भेद बतलाते हैं - 'वहाँ प्रथम निश्चय - व्यवहार का भेद बतलाते हैं। - विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान रूप आत्मा का परिणाम वह तो निश्चयसम्यक्त्व है क्यों कि यह सत्यार्थ सम्यक्त्व का रूप है। सत्यार्थ का नाम निश्चय है तथा विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान को कारणभूत श्रद्धान सो व्यवहार सम्यक्त्व है, क्यों कि कारण में कार्य का उपचार किया है, सो उपचार का ही नाम व्यवहार है । ' वहाँ सम्यग्दृष्टि जीव के देव-गुरु-धर्मादिक को सच्चा श्रद्धान है, उसी निमित्त से इसके श्रद्धान में विपरीताभिनिवेश का अभाव है। यहाँ विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान सो तो निश्चय सम्यक्त्व है और देव-गुरुधर्मादिक का