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तत्र सरागमपरद्वयम् ॥६५॥.... इसमें क्षायिक को वीतराग एवं शेष दो (औपशमिक, क्षायोपशमिक)को सरागसम्यक्त्व कहा है। ४. पंचास्तिकाय (ता.वृ.१५०-१५१) यदायं जीवाःआगमभाषयाकालादिलब्धिरूपमध्यात्मभाषया शुद्धात्माभिमुख परिणाम रूपं स्वसंवेदनज्ञानं लभते तदा प्रथमतस्तावन्मिथ्यात्वादि सप्तप्रकृतिनामुपशमेन क्षयोपशमेनच सराग सम्यग्दृष्टिभूत्वा पंचपरमेष्ठीभक्त्यादि रूपेण पराश्रित धर्म्यध्यान बहिरंग सहकारित्वेनानंतज्ञानादि स्वरूपोऽ हमित्यादि भावना स्वरूपमात्माश्रितधर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासंयत सम्यग्दृष्टयादि गुणस्थानचतुष्टय मध्ये क्वापि गुणस्थाने दर्शन मोह क्षयेण क्षायिक सम्यक्त्वं कृत्वा...... ५. मोक्षमार्गप्रकाशक-(९/३२२). जैसा सप्ततत्त्वों का श्रद्धान छद्मस्थ के हुआ था,वैसा ही केवली भगवान के पाया जाता है इसलिए ज्ञानादिक की हीनता-अधिकता होने पर भी तिर्यंचादिक व केवली-सिद्ध भगवान के सम्यक्त्व गुण समान ही कहा है। ....केवली-सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमित नहीं होते, संसार अवस्था को नहीं चाहते, सो यह इस श्रद्धान का बल जानना।' ६. पंचास्तिकाय(ता.३.१६०) ...... 'वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत जीवादिपदार्थ विषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयं ग्रहस्थतपोधनयो समानं .....' ७. श्लोकवार्तिक (२/१/२) सरागे वीतरागे च तस्य संभवतोऽञ्जसा।
. प्रशमादेरभिव्यक्तिः शुद्धिमात्राच चेतसः॥१२॥ यथैव हि विशिष्टात्मस्वरूपंश्रद्धानं सरागेषु संभवति तथा वीतरागेष्वपीति तस्याव्याप्तिरपि दोषो न शंकनीयः॥.....एतानि प्रत्येकं समुदितानि वा स्वस्मिन् स्वसंविदितानि परत्रकायावाग्व्यवहारविशेष लिंगानुमितानि सराग सम्यग्दर्शनं ज्ञापयंति .....' अर्थ- जैसे ही दर्शनमोहनीय के उदय रहित विशिष्ट आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप श्रद्धान ठीक सराग सम्यग्दृष्टियों में संभवता है। इसी प्रकार वीतराग जीवों में भी स्वाभाविक परिणाम रूप श्रद्धान विद्यमान है। इस कारण उस सम्यग्दर्शन के लक्षण में अव्याप्ति दोष होने की भी शंका नहीं करनी चाहिए। (लक्ष्य के पूरे भेद-प्रभेदों में जो लक्षण व्याप्ता है, वह अव्याप्तनाम का लक्षणाभास नहीं है। प्रशम,संवेग,अनुकंपा और आस्तिक्य इन चार स्वभावों से रागी जीवों में सम्यग्दर्शन की ज्ञप्ति हो जाती है और वीतराग जीवों में केवल आत्मा की विशुद्धि से ही सम्यग्दर्शन व्यक्त हो जाता है। श्लोकार्थ-सराग व वीतराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन संभव है। तहाँ सराग में तो प्रशमादिलक्षणों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति होती है और वीतराग में वह केवल चित्त विशुद्धि द्वारा लक्षित होता है। प्रशमादि गुण एक एक करके या समुदित रूप से अपनी आत्मा में तो स्वसंवेदनगम्य है और दूसरों में काय च वचन व्यवहार रूप विशेष ज्ञापक लिंगों द्वारा अनुमान गम्य है। इन प्रशमादि गुणों पर से सम्यग्दर्शन जान लिया जाता है। उपसहार-१.परमार्थतः सम्यक्त्व (विपरिताभिनिवेशरहित निज शुद्धात्मा का श्रद्धान