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२८ ‘परमार्थतः कषायों के असंख्यात लोक प्रमाण स्थान हैं। उनमें सर्वत्र पूर्वस्थान से उत्तरस्थान में मंदता पायी जाती है, परंतु व्यवहार से उन स्थानों में तीन मर्यादाएँ कीं। आदि के बहुत स्थान तो असंयम रूप कहे, फिर कितने ही देश संयम रूप कहे, फिर कितने ही सकल संयम रूप कहे। उनमें प्रधम गुणस्थान से चतुर्थ गुणस्थान तक जो कषाय के स्थान होते हैं वे सर्व असंयम ही के होते हैं। इसलिए कषायों की मंदता होने पर भी चारित्र नाम नहीं पाते। यद्यपि परमार्थ से कषाय का घटना चारित्र का अंश है, तथापि व्यवहार से जहाँ ऐसा कषायों का घटना हो, जिससे श्रावकधर्म या मुनिधर्म का अंगीकार हो,वहीं चारित्र नाम पाता है, सो असंयत में ऐसे कषाय घटती नहीं है, इसलिए यहाँ असंयम कहा है। कषायों को अधिक-हीनपना होने पर भी जिस प्रकार प्रमत्तादि गुणस्थानों में सर्वत्र सकल संयम हि नाम पाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वादि असंयत पर्यंत गुणस्थानों में असंयत नाम पाता है। सर्वत्र असंयम की समानता नहीं जानना।' ___ आदरणीय बैनाड़ा जी ! आपने प.पू. ज्ञानसागरजी द्वारा कथित चतुर्थ गुणस्थान में मात्र आत्मा का विश्वास होने की बात मान्य की है और मैंने प.पू. मुनिवर वीरसागरजी महाराज (सोलापुर)द्वारा लिखित जैन अध्यात्म न्यायदीपिका का एवं समयसार(ता.वृ. टीका)का अध्ययन करके उनके पास ५ वर्षों तक १-१ माह जा-जाकर चतुर्थ गुण स्थान में मात्र आत्मानुभूति होने की बात मान्य की है। आप व मैं दोनों आगमप्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं, फिर भी विसंगति दूर क्यों नहीं हो रही है? इसके अलावा मैंने क्षु.द्वय (पू.क्षु.सुशीलमती माताजी,एवं पू.क्षु.सुव्रता माताजी-सुशिष्या प.पू.वीरसागरजी महाराज), श्री मनहरलालजी वर्णी एवं श्री जिनेंद्र जी वर्णी के सान्निध्य का लाभ लिया है, और आचार्यश्री विद्यासागरजी के पास बिलकुल समीप बैठकर ९ सालों तक अनेकों जगह तत्त्वचर्चाएँ की है और उन्होंने मुझे भरपूर लाभ भी दिया है,आशीर्वाद भी मिला है। किंतु उनके द्वारा कुछ तत्त्वों की विवेचना ऐसी प्रतीत होने लगी कि ये विवेचना आगम-अध्यात्म से मेल नहीं खाती प्रतीत होती और आगम-अध्यात्म के वेत्ता ४-५ विद्वानों, सर्वश्री पं. फूलचंदजी सिद्धांत शास्त्री,पंकैलाशचंदजी सि.शास्त्री,पं.जगन्मोहनलालजी सि.शा.,पं.पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं.देवेंद्रकुमारजी शास्त्री आदि से भी तत्त्वचर्चाएँ की। इन विद्वानों के सान्निध्य में आचार्यश्री के ससंघ धवला वाचनाओं में भी थोडा-थोडा भाग लिया परंतु निम्नलिखित चिंतनों ने मुझे झकझोर दिया,क्यों कि इनके आगम प्रमाण नहीं है........। (१)कर्मबंध प्रक्रिया में मिथ्यात्व अकिंचित्कर है। (२)अनंतानुबंधी कषाय से मिथ्यात्व का(दर्शनमोह)का बंध होता है। (३)विसंयोजित अनंतानुबंधी कषाय (चारित्रमोह) का बंध प्रथम गुणस्थान में आने पर अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषायों से होता है। भले जय धवला (कषाय पाहुचुभाग ४ पेज २४) में मूल में मिथ्यात्व से बंध होना लिखा हो। (४) 'दसण मूलो धम्मो।' का अर्थ धर्म का मूल सम्यग्दर्शन नहीं, वरन् मुनिमुद्रा है।