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'अहो निःशङ्कितत्वनिःकांक्षितत्वनिर्विचिकित्सत्वनिर्मूढदृष्टित्वोपबृंहण स्थितिकरण वात्सल्यप्रभावनालक्षणदर्शनाचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीमिंदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे। अर्थ-अहो निःशङ्कितत्व,निःकांक्षितत्व,निर्विचिकित्सत्व,निर्मूढदृष्टित्व,उपबृंहण,स्थिति - करण, वात्सल्य, प्रभावना स्वरूप दर्शनाचार, तू शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है। ऐसा मैं निश्चय से जानता हूँ तो भी तुझको तब तक स्वीकार करता हूँ, जब तक तेरे प्रसाद से शुद्ध आत्मा को प्राप्त हो जाऊँ। __ उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि व्यवहार सम्यग्दर्शन पहले होता है। तदुपरांत वीतराग चारित्र का अविनाभावी निश्चय सम्यग्दर्शन बाद में होता है।
जिज्ञासा ३.- क्या सम्यग्दर्शन की पर्याय निश्चय व्यवहार दो रूप होती है? . समाधान - आचार्यों ने सम्यग्दर्शन की पर्याय दो रूप ही मानी है।
१.पंचास्तिकाय गाथा १०७ की टीका श्री जयसेनाचार्य ने कहा है'यद्यपि क्वापि निर्विकल्पसमाधिकाले निर्विकार शुद्धात्मरुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण बहिरंगपदार्थरुचिरूपं यद्व्यवहार सम्यक्त्व तत्स्येव तन्त्र मुख्यता।'
इस प्रकरण से स्पष्ट है कि निश्चय सम्यक्त्व तो कभी-कभी होता है जब कि व्यवहार प्रचुरता से रहता है। आचार्यों ने व्यवहार सम्यक्त्व को सराग सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहा है।
२. समयसार गाथा - २११-२१२ की टीका में (जयसेनाचार्य जी ने)कहा है- . 'किंच-रागी सम्यग्दृष्टि न भवतीति भणितं भवद्भिः। तर्हि चतुर्थ पंचम गुण स्थानवर्तिनः तीर्थंकर-कुमार-भरत-सगर-राम-पाण्डवादयः सम्यग्दृष्टयो न भवन्ति ? इति । तत्र मिथ्यादृष्ट्यापेक्षया त्रिचत्वारिशप्रकृतीनां बन्धाभावात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवन्ति।' . ___आपने कहा कि रागी सम्यग्दृष्टि नहीं होता। तब तो चतुर्थ पंचमगुणस्थानवर्ती कुमार अवस्था के तीर्थंकर, भरत, सगर, चक्रवर्ती, रामचंद्र, पाण्डव, आदि सम्यग्दृष्टि नहीं होता . चाहिए। समाधान- नहीं, यह बात नहीं है। मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा ४३ प्रकार के बंध का अभाव होने से वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं।
३.प्रश्न १ के समाधान में परमात्म प्रकाश का जो उदा. दिया है वह यहाँ भी पढ़ने योग्य है। ४. रयणसार गाथा ४ में कहा है- 'सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं।
• तं.जाणिज्जड़ णिच्छयाहारसरूवदो भेदं।' अर्थ-सम्यग्दर्शन समस्त रत्नों में सारभूत रत्न है और मोक्षरूपो वृक्ष का मूल है, इसके निश्चय और व्यवहार ऐसे दो भेद जानने चाहिए।