________________
जिज्ञासा -समाधान -जिनभाषित मई २००५ समाधान कर्ता- पं. रतनलाल जी बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- श्रीमती ज्योति लुहाड़े, कोपरगाँव जिज्ञासा-क्या चतुर्थ गुणस्थान में आत्मानुभूति होती है? समाधान - इस प्रश्न का उत्तर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने 'सम्यक्त्वसारशतकम्' नामक ग्रंथ में बहुत सुंदर दिया है। उसी के अनुसार यहाँ लिखा जाता है। जब संज्वलन कषाय का तीव्र उदय न होकर मंद उदय होता है,तब यह जीव अपने पुरुषार्थ से उस मंद उदय को दबाकर या नष्ट करके अपने आप में लीन हो जाता है, उस लीन होने को आत्मानुभव या आत्मानुभूति कहते हैं। यही स्वरूपाचरण चारित्र है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को आत्मानुभूति तो नहीं होती मगर आत्मतत्त्व का विश्वास जरूर होता है। जैसे-किसी व्यक्ति के तीन पुत्र हैं। जिन्होंने नमक की डेली को उठाकर खाया वह नमकीन लगी। फिर जब उनको मिश्री की डेले दिये तो उन्होंने उनको भी नमक मानकर दूर फेंक दिया। तब पिता ने कहा, यह नमक नहीं मिश्री है ,एवं नमकीन नहीं, मीठी है। परंतु पुत्रों ने नहीं माना। बाद में जब मिश्री के डेले पर मक्खियाँ भिनभिनाने लगी नमक के डेले पर मक्खियाँ नहीं गयीं तब पिता ने फिर समझाया। तीन पुत्रों में से एक पुत्र को फिर भी विश्वास नहीं हुआ। अन्य दो पुत्रों में से एक पुत्र ने कहा कि पिताजी कह रहे हैं अतः यह मिश्री ही होगी,मीठी ही होगी। परंतु तीसरे पुत्र ने तुरंत मिश्री की डेली को उठाकर चखा, और कहा, अहा, सचमुच मिश्री है, मीठी है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को तो आत्मतत्त्व पर विश्वास ही नहीं होता। अविरत सम्यग्दृष्टि को
आत्मविश्वास मात्र ही होता है। परंतु शुक्लध्यानी जीव को आत्मानुभूति अथवा आत्मानुभव रूप आनंद की प्राप्ति होती है। यदि कोई गृहस्थ होते हुए भी अपने आत्मस्वरूप का चिंतवन कर रहा हो, जैसे मैं शुद्ध-बुद्ध सच्चिदानंद हूँ, मेरे अंदर राग द्वेष वगैरेह कुछ भी नहीं है, तो उस समय भी उस जीव के आत्मानुभव नहीं कहा जा सकता। यह आदमी तो उस भिखारी की तरह पागल है जो जन्म से दरिद्र होते हुए भी अपने आप को चक्रवर्ती मानता हो। इससे तो वह मिथ्यादृष्टि अच्छा है जो अपने आपको दुखी अनुभव करता हुआ यह सोचता है कि यह दुख मुझे क्यों हो रहा है? और यह कैसे नष्ट हो सकता है? इतना अवश्य है कि जो तत्त्वश्रद्धानी कभी गृहस्थोचित बातों की तरफ से मन को मोड़कर एकसा विचार कर रहा हो कि मैं स्वभाव की अपेक्षा तो सिद्धों के समान निर्विकार हूँ।वर्तमान में कर्म संयोग के कारण बाह्य पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट कल्पना रूप विकार मुझ में हो रहा है, जिसे मुझे छोड़ना चाहिए, इत्यादि। तो उसका यह विचार सद्विचार है, धर्मभावनारूप है और मंद लेश्या के होने से होने वाला यह परिणाम स्वरूपाचरण या आत्मानुभूति या आत्मानुभव में कारण माना गया है।
आ. ज्ञानसागरजी महाराज के उपरोक्त प्रकरण के अनुसार चतुर्थ गुणस्थान में आत्मविश्वास तो होता है, परंतु आत्मानुभूति अथवा स्वरूपाचरण रूप चारित्र कदापि नहीं होता।