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66 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना इसलिए चैतन्य को आत्मा का गुण नहीं, बल्कि स्वभाव माना गया है। आत्मा प्रकाशरूप है। वह स्वयं तथा संसार के अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करती है।
आत्मा को शरीर से भिन्न माना गया है। शरीर भौतिक है, परन्तु आत्मा अभौतिक अर्थात् आध्यात्मिक है। आत्मा बुद्धि और अहंकार से भिन्न है; क्योंकि आत्मा चेतन है, जबकि बुद्धि और अहंकार अचेतन है। आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है; क्योंकि इन्द्रियाँ अनुभव के साधन है, जबकि पुरुष अनुभव से परे है। पुरुष को सांख्य ने निष्क्रिय अर्थात अकर्ता माना है। वह संसार के कार्यों में हाथ नहीं बँटाता है। आत्मा को इसलिए निष्क्रिय माना गया है कि उसमें इच्छा, संकल्प और द्वेष का अभाव है। इस स्थल पर सांख्य का पुरुष जैन दर्शन के 'जीव से भिन्न हैं। जैन दर्शन में जीवों को कर्ता माना गया है, जीव संसार के कार्यों में संलग्न रहता है, परन्तु सांख्य का पुरुष दृष्टा है।
पुरुष ज्ञाता है, वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। आत्मा निस्त्रैगुण्य है; क्योंकि उसमें सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों का अभाव है। इसके विपरीत प्रकृति को त्रिगुणमयी माना जाता है; क्योंकि सत्त्व, रजस् और तमस् इसके आधार स्वरूप हैं। आत्मा शाश्वत है, यह अनादि और अनन्त है। शरीर का जन्म होता है और मृत्यु भी; परन्तु आत्मा अविनाशी है, वह निरन्तर विद्यमान रहती है।
___आत्मा कार्य कारण की श्रृंखला से मुक्त है। पुरुष को न किसी वस्तु का कारण कहा जा सकता है और न कार्य। कारण और कार्य शब्द का प्रयोग यदि पुरुष पर किया जाये तो वह प्रयोग अनुचित होगा।"
पुरुष अपरिवर्तनशील है, इसके विपरीत प्रकृति परिवर्तनशील है, पुरुष काल और दिक् की सीमा से बाहर है। वह काल और दिक् में नहीं, क्योंकि वह नित्य है।
__पुरुष पुण्य-पाप से रहित है पाप और पुण्य उसके गुण नहीं है, क्योंकि वह निर्गुण है। सांख्य का आत्म-सम्बन्धी विचार अन्य दार्शनिकों से भिन्न है, न्याय-वैशेषिक ने आत्मा को स्वतः अचेतन कहा है। आत्मा में चेतना का संचार तब ही होता है, जब आत्मा का सम्पर्क मन, शरीर और इन्द्रियों से होता है। चैतन्य आत्मा का आगन्तुक लक्षण है, परन्तु सांख्य चैतन्य को आत्मा का स्वरूप मानता है। चैतन्य आत्मा का धर्म न होकर