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58 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना मिथ्याज्ञान का नाश तभी हो सकता है, जब आत्मा अपने को इन्द्रियों या मन से भिन्न समझे। इसलिए तत्त्वज्ञान को अपनाना आवश्यक है।
मोक्ष पाने के लिए न्याय दर्शन में श्रवण, मनन और निदिध्यासन पर जोर दिया गया है।
श्रवण-मोक्ष पाने के लिए शास्त्रों का विशेष रूप से उनके आत्मा विषयक उपदेशों को सुनना चाहिए।
मनन-शास्त्रों से आत्मा विषयक ज्ञान पर विचार करना चाहिए तथा सुदृढ़ बनाना चाहिए।
निदिध्यासन-मनन के बाद योग के बतलाये गये मार्ग के अनुसार आत्मा का निरन्तर ध्यान करना अपेक्षित है; इसे निदिध्यासन कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि-ये योग के आठ अंग हैं। ... इन अभ्यासों का फल यह होता है कि मनुष्य आत्मा को शरीर से भिन्न समझने लगता है। मनुष्य के इस मिथ्याज्ञान 'मैं शरीर और मन हूँ' का अन्त हो जाता है। उसे आत्मज्ञान होता है। आत्मा को जकड़ने वाले धर्म और अधर्म का सर्वप्रथम नाश हो जाने से शरीर और ज्ञानेन्द्रियों का नाश हो जाता है। आत्मा की वासनाओं एवं प्रकृतियों पर विजय होती है। इस प्रकार आत्मा पुनर्जन्म एवं दुख से मुक्त हो जाती है। यही अपवर्ग है। न्याय दर्शन में सिर्फ विदेह मुक्ति को प्रामाणिकता मिली है। जीवन मुक्ति जिसे बौद्ध, सांख्य, शांकर मानते हैं, किन्तु नैयायिकों को मान्य नहीं है।
न्याय के मोक्ष विचार की काफी आलोचना हुई है। न्याय में मोक्ष को अभावात्मक अवस्था कहा है। इस अवस्था की प्राप्ति से सभी प्रकार के ज्ञान सुख-दुःख, धर्म-अधर्म का नाश हो जाता है, इसलिए वेदान्तियों ने न्याय के मोक्ष सम्बन्धी विचार की आलोचना यह कहकर की है कि यहाँ आत्मा पत्थर के समान हो जाती है। मोक्ष का आदर्श इस प्रकार उत्साहवर्धक नहीं रहता है। ऐसे मोक्ष को अपनाने के लिए प्रयत्नशील रहना जिसमें आत्मा पत्थर के समान हो जाती है, बुद्धिमत्ता नहीं है।
कुछ आलोचकों ने इसलिए न्याय के मोक्ष को एक अर्थहीन शब्द कहा हैं। एक वैष्णव विचारक न्याय के मोक्ष-विचार की आलोचना करते हुए कहते हैं कि न्याय-दर्शन में जिस प्रकार की मुक्ति की कल्पना की गई है,