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________________ 54 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना को आत्मा मानने के बदले द्रव्य को आत्मा मानना, जिसका गुण चैतन्य हो, न्याय के मतानुसार मान्य है । न्याय - दर्शन में आत्मा की अनेक विशेषताएँ बतलाई गई हैं । आत्मा एक ज्ञाता है। जानना आत्मा का धर्म है, वह ज्ञान का विषय नहीं होता है। आत्मा भोक्ता है। वह सुख - दुःख का अनुभव करता है आत्मा कर्ता है। न्याय भाष्य में कहा गया है कि आत्मा सबका दृष्टा सुख - दुःख को भोगने वाला और वस्तुओं को जानने वाला है। आत्मा नित्य है । आत्मा निरवयव है। सावयव विषयों का नाश होता है। आत्मा अवयवहीन होने के कारण अविनाशी है । ईश्वर भी न आत्मा को पैदा कर सकता है और न उसे मार ही सकता है । यद्यपि आत्मा नित्य है, फिर भी आत्मा के कुछ अनित्य गुण हैं। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि आत्मा के अनित्य गुण हैं । 1 आत्मा कर्म नियम के अधीन है। अपने शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ही आत्मा शरीर ग्रहण करती है । अतीत जन्म के कर्मों के अनुसार आत्मा के अन्दर एक अदृश्य शक्ति पैदा होती है । जो आत्मा के लिए एक उचित शरीर का चुनाव करती है। न्याय के मतानुसार आत्मा का पूर्व जन्म एवं पुनर्जन्म मानना पड़ता है | 26 न्याय ने आत्मा को विभु माना है । यह काल और दिक् के द्वारा सीमित नहीं होती है। यद्यपि यह विभु है, फिर भी इसका अनुभव केवल शरीर के अन्दर ही होता है। आत्माओं की संख्या अनन्त है । प्रत्येक शरीर में एक भिन्न आत्मा का निवास है । बन्धन की अवस्था में यह निरन्तर आत्मा के साथ रहता है । न्याय - दर्शन जीवात्मा को अनेक मानकर अनेकात्मवाद के सिद्धान्त को अपनाता है। न्याय का यह विचार जैन और सांख्य के विचार से मिलता है । न्याय का अनेकात्मवाद शंकर के आत्म-विचार का निषेध करता है । शंकर ने आत्मा को एक मानकर एकात्मवाद के सिद्धान्त को अपनाया है। न्याय शंकर के एकात्मवाद की आलोचना करते हुए कहता है कि यदि आत्मा एक होती तो एक व्यक्ति के अनुभव से सबको अनुभव हो जाता तथा एक व्यक्ति के बन्धन या मोक्ष से सबका बन्धन या मोक्ष हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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