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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना द्यानतराय का आन्तरिक व्यक्तित्व सांसारिकता से परे आत्मोन्मुखी है । वे आत्महित के प्रति पूर्णतया जागरूक एवं सावधान हैं इसलिए संसार भोगों से विरक्त होकर दृष्टि को अन्तर्मुख करने की बात करते हैं ऐश्वर्य रु आश्रित नैना जब लौं तेरी दृष्टि फिरै ना। जब लौं तेरी दृष्टि सवाई कर धर्म अगाऊ भाई ।।
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थे । इसीलिए कठोर बोलने वालों को समझाते हुए कहते हैं कि निज शत्रु जो घरमाहिं आवै, मान ताकौ कीजियै । अति ऊँच आसन मधुर वानी, बोलिकैं जस लीजियै । । भगवान सुगुन - निधान मुनिवर, देखि क्यौं नहिं हरखियै । पड़गाही लीजै दान दीजै, भगति बरखा बरखियै । ।
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( 10 ) विनम्र - द्यानतराय विनम्र स्वभाव के व्यक्ति थे । विनम्रता उनमें कूट-कूट कर भरी थी; इसीलिए वे अपने आराध्य के प्रति तो विनम्रता प्रदर्शित करते हुए स्तुति करते ही हैं; अपितु सभी जैनाचार्यों एवं विद्वानों आदि के प्रति अहंकार छोड़कर विनम्रता प्रदर्शित करते हैं -
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यह भावना – उत्तम सदा, भाऊं सुनौ जिनराय जी । तुम कृपानाथ अनाथ द्यानत, दया करनी न्याय जी ।। कवि द्यानतराय प्रकाण्ड विद्वान एवं व्याकरण के पाठी होकर भी अपनी विनम्रता इस प्रकार प्रकट करते हैं और बुद्धिमानों से क्षमा करने तथा भूल सुधारने की प्रार्थना करते हैं
पिंगल न पढ़यौ नहीं देखी नाममाला कोऊ, व्याकरण काव्य आदि एक नाहिं पढ्यौ है । आगम की छाया लैकैं अपनी सकति सार सैली के प्रभाव सेती स्वर कोट गढ्यौ हैं । अच्छर अरथ छंद जहाँ जहाँ भंग होय, तहाँ तहाँ लीजै सोध ग्यान जिन्हें बढ्यौ है; वीतराग शुति कीजै साधरमी संग लीजै, आगम सुनीजै पीजै ग्यानरस कट्यौ है ।। (11) मृदुभाषी - द्यानतराय विनम्र होने के साथ-साथ मृदुभाषी भी
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