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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 153 अर्थात जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जो जीव सम्पूर्ण परद्रव्यों से मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्यागधर्म होता है। ... कवि द्यानतराय ने निश्चय और व्यवहार त्याग धर्म का स्वरूप इस प्रकार व्यक्त किया है - दान चार परकार, चार संघ को दीजिए। धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिए।। उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शास्त्र अभय आहारा। . .: निहचै राग-द्वैष निरवारै, ज्ञाता दोनों दान सँभारै ।। __ दोनों सँभारे कूप-जल सम, दरब घर में परिनया। निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया।। . . . धनि साधु शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को। । बिन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं बोध को।। 36 ७) आकिंचन्य धर्म-ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा को छोड़कर किंचित्मात्र भी परपदार्थ तथा पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष के भाव आत्मा के नहीं हैं - ऐसा जानना, मानना और ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा के आश्रय से उनसे विरत होना, उन्हें छोड़ना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। " रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आकिंचन्य धर्म को इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है। - अपने ज्ञान दर्शनमय स्वरूप के बिना अन्य किंचित्मात्र भी मेरा नहीं हैं, मैं किसी अन्य द्रव्य का नहीं हूँ- ऐसे अनुभव को आकिंचन्यं धर्म कहते हैं। द्यानतराय ने आकिंचन्य धर्म का स्वरूप इस प्रकार बताया हैपरिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें मुनिराजजी। तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइए।। उत्तम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुख ही मानो। . फाँस तनक-सी तन में सालै, चाह लँगोटी की दुख भाले।। भालै न समता सुख कभी नर, बिना मुनि मुद्रा धरैः।' धनि नगन तन पर नगन ठाड़े, सुर-असुर पायनि परें ।। घरमाहिं तिसना जो घटावै, रुचि नहीं संसार सौं। बहु धन बुरा हू भला कहिये, लीन पर-उपगार सौं।। 38
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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