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________________ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 145 आवश्यकता पर जोर दिया है क्योंकि इन्द्रियों के विषयों में सुख नहीं, सुखाभास है। (2) मन संयम की आवश्यकता-मन को बहुत ही चंचल बताया गया है, मन को जो रुचिकर लगता हैं, वह उधर ही चला जाता है। मन की पवित्रता की बात प्रायः सभी दर्शनों, धर्मों ने कही है। मन को वश में करके ही हम आत्मकल्याण कर पाते हैं। जो मन को संयमित कर लेता है, वह ही आत्मा को प्राप्त कर पाता है। . उत्तम क्षमाधर्म के अर्घ्य में द्यानतरायजी लिखते हैं कि - गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो।' अर्थात् मन इतना पवित्र होना चाहिए कि यदि कोई गाली दे, अपने गुणों को अवगुण बताये तो भी उसके प्रति द्वेषभाव नहीं आवें, वही मन का संयम है। आर्जव धर्म के अर्घ्य में भी वे लिखते हैं - मन में होय सो वचन उचरिये, ___ वचन होय सो तन सौ करिये ।।10 __ अर्थात् मन इतना पवित्र होना चाहिए कि जो हमारे मन में हो, उसे वचनों से कहना चाहिए और जो वचन से कह रहे हैं उसे तन से करना चाहिए। मन को जब तक स्थिर नहीं करेंगे, तब तक आत्मध्यान की अवस्था नहीं आ सकती है। अतः आत्मध्यान के लिए मन को स्थिर करना अर्थात संयमित करना आवश्यक है। जैसा कि द्यानतरायजी लिखते हैं - मन वच काय जोग थिर करकै, ज्ञान समाधि लगाऊँगा। कब हौं क्षपक श्रेणि चढि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊँगा।" अर्थात् जब तक मनायोग, वचनयोग और काययोग को स्थिर नहीं किया जायेगा, तब तक ज्ञान समाधि अर्थात आत्मानुभव नहीं हो सकता। मन की चंचलता के विषय में वे लिखते हैं कि कहिवे को मन सूरमा, करवे को काचा। विषय छुड़ावै और पै, आपन अति माचा।। 1 ।। 12 मन को संयमित रखने की प्रेरणा देते हुए द्यानतरायजी लिखते हैं - जिन नाम सुमरि मन बाबरे, कहा इत उत भटके। विषय प्रगट विष बेल है, इनमें मत अटके ।। दुरलभ नरभव पाय के नगसो मत पटकैं।
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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