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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 125 आतम अनुभव करना रे भाई।। टेक।। जब लों भेदज्ञान नहिं उपजे, जनम मरन दुख भरना रे।... आगम पढ़ नव पद तत्त्व बखान, व्रत तप संजम धरना रे। आतम-ज्ञान बिना नहिं कारज, जोनी-संकट परना रे।। सकल ग्रंथ दीपक है भाई मिथ्या तमको हरना रे।' कहा करें ते अन्ध पुरुष को, जिन्हें उपजना मरना रे। द्यानत जे भवि सुख चाहत हैं, तिनको यह अनुसरना रे। 'सोऽहं ये दो अक्षर जपके, भव-जल पार उतरना रे।। 118
ज्ञानी और अज्ञानी का स्वरूप बताते हुए द्यानतरायजी तत्त्वसार भाषा में लिखते हैं -
भव्य करै चिरकाल तप, लहैं न सिव विन ग्यान। ग्यानवान ततकाल ही, पावै पद निरवान ।। देह आदि परदव्य मैं, ममता करै गँवार | भयौ परसमै लीन सो, बाँधै कर्म अपार ।। इंद्रीविषै मगन रहै, राग दोष घटमाहिं। क्रोध मान कलुषित कुछी, ग्यानी ऐसौ नाहिं ।।11७
अर्थात जब तक मन परद्रव्यों में व्याप्त है, तब तक उग्र तप को भी करता हुआ भव्य जीव मोक्ष को नहीं पाता है, किन्तु शुद्धभाव में लीन होने पर शीघ्र ही पा लेता है तथा जो देहादिक परद्रव्य हैं और जब तक उनके ऊपर ममत्व भाव करता है, तब तक वह पर समय में रत है, अतएव नाना प्रकार के कर्मों से बँधता है। यह सब जीव के अज्ञान भाव के कारण ही होता है। अब वे ज्ञानी अज्ञानी के स्वरूप के बारे में बताते हैं -
जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त मूढ़ कषाय-युक्त अज्ञानी पुरुष नित्य किसी में रुष्ट होता है और किसी में सन्तुष्ट होता है, किन्तु ज्ञानी पुरुष इससे विपरीत स्वभाव वाला होता है।
अज्ञानता के कारण यह जीव किस प्रकार राग-द्वेष अज्ञानभावों में परिणमित होता है। इसका वर्णन तत्त्वसार भाषा की टीका में इस प्रकार किया गया है -
मूढ़ बहिरात्मा अज्ञानी पुरुष नित्य सर्वकाल रात-दिन किसी अनिष्ट प्रतीत होनेवाले परद्रव्य में रुष्ट होता है अर्थात् द्वेष करता है और किसी इष्ट प्रतीत होनेवाले परद्रव्य में सन्तुष्ट होता है अर्थात् प्रसन्न होकर राग करता है।