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________________ 102 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना अर्थात् जीव के जो भाव कहे गये हैं- वे व्यवहारनय का आश्रय करके संसारी जीवों में विद्यमान कहे गये हैं। शुद्धनय से संसार में रहनेवाले सर्व जीव सिद्ध स्वभावी हैं। तत्त्वसार भाषा में आत्मा के बारे में द्यानतराय ने इसप्रकार कहा है - आतम तत्त्व कह्यौ गणधार, स्वपर भेदतें दोइ प्रकार। अपनौ जीव स्वतत्त्व बखानि, पर अरहंत आदि जिय जानि।। 3113 अर्थात् आत्मा दो प्रकार का है – (1) स्वतत्त्व और (2) परतत्त्व । (1) स्वतत्त्व अर्थात् स्व का आत्मा। (2) परतत्त्व अर्थात् अरहंत आदि का आत्मा। द्यानतराय के परमात्मा सम्बन्धी विचार- जैन मतानुसार आत्मा के तीन भेद हैं - (1) बहिरात्मा (2) अन्तरात्मा और (3) परमात्मा। जैसा कि पण्डित दौलतरामजी कहते हैं - बहिरातम, अन्तर आतम. परमातम, जीव त्रिधा है; देह जीव को एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है। उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के अन्तर आतमज्ञानी, द्विविध संग बिन शुध उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी। (1) बहिरात्मा- जो शरीर और आत्मा को एक मानते हैं, उन्हें बहिरात्मा कहते हैं। (2) अन्तरात्मा- जो शरीर और आत्मा को अपने भेदविज्ञान से भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि हैं। उस अन्तरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम, मध्यम और जघन्य । उनमें अन्तरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह से रहित सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक वर्तते हुए शुद्ध उपयोगी आत्मध्यानी दिगम्बर मुनि उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। मध्यम, जघन्य अन्तरात्मा तथा सकल परमात्मा का स्वरूप मध्यम अन्तर-आतम हैं जो देशव्रती अनगारी। जघन कहे अविरत समदृष्टि तीनों शिवमग चारी। सकल निकल परमातम द्वैविध तिन में घाति निवारी। श्री अरिहन्त सकल परमातम लोकालोक निहारी।। 5 115
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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