SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 73 ।। ह। कभी नहीं है, राग का भी कर्ता-भोक्तापना आत्मा के स्वभाव में नहीं है। अब, निर्मलपरिणाम का जो कर्ता-भोक्तापना पर्याय में है, वह भी शुद्धद्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में नहीं आता है क्योंकि दोनों नयों के दो विषय हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं । बन्ध और बन्ध का कारण; मोक्ष और मोक्ष का कारण – ये सब पर्याय में हैं; द्रव्य में नहीं। इस अपेक्षा से शुद्ध जीव को बन्ध-मोक्ष के परिणाम से शून्य कहा है। जीव में बन्धपना या मोक्षपना त्रिकाली नहीं, परन्तु क्षणिक पर्यायरूप है। शुद्धद्रव्य को देखनेवाली निर्मलपर्याय में आनन्द का कर्ता--भोक्तापना है। शुद्ध का लक्ष्य करनेवाला निर्मलपरिणाम है, वह कहीं शून्य नहीं है, वह तो वीतरागी शान्ति की अस्तिरूप है; अनुभव में कहीं उसका अभाव नहीं होता, विकल्प का अभाव है, खेद का अभाव है परन्तु निर्मलपर्याय है, उसमें आनन्द है, उसका अभाव नहीं है। त्रिकाल का लक्ष्य करनेवाली वर्तमान पर्याय है, उसका अनुभव है; अनुभव की पर्याय, त्रिकाली शुद्धस्वभाव की ओर ढली है। शुद्धद्रव्य के लक्ष्य से / आश्रय से शुद्धपरिणाम हुए हैं परन्तु वे परिणाम शुद्धद्रव्य की दृष्टि में दिखाई नहीं देते, इस अपेक्षा से शुद्ध जीवद्रव्य को बन्ध-मोक्ष के परिणाम से शून्य कहा है और ऐसे शुद्धस्वभाव के लक्ष्य से जो शुद्धपर्याय प्रगट हुई, उसमें विकल्प की या खेद की शून्यता है। शुद्धनय से ऐसे शुद्धजीव का अनुभव, वह मोक्षमार्ग है। इस प्रकार शुद्धनय, वह मोक्ष का द्वार है, उसमें प्रवेश करने से मोक्षमार्ग प्रारम्भ होता है। . द्रव्य क्या-पर्याय क्या? ध्यान क्या-ध्येय क्या? स्वभाव क्या -विभाव क्या? इन सब प्रकारों को जाने बिना कितने ही कहते हैं
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy